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कैसे सोचें ?
अमूर्च्छा और जागरूकता जैसे-जैसे बढ़ती है, हम अपनी हर क्रिया के प्रति सावधान हो जाते हैं । विचार के प्रति जागरूक, वाणी के प्रति जागरूक, शरीर की क्रिया के प्रति जागरूक - जब तीनों कर्मों के प्रति जागरूक बन जाते हैं फिर कोई भी बुरा विचार सहजतया नहीं घुस पाता । जैसे ही कोई बुरे विचार की तरंग उठनी शुरू होगी, पता लग जाएगा। पता लगा, मालिक जागा और चोर भागा । जैसे ही कोई क्रोध का विचार आया, अहंकार का विचार आया और आप जाग गये उस विचार के प्रति, अपने आप तरंग वहीं शांत हो जाएगी। हम वाणी के प्रति जागरूक बनें फिर मुंह से कोई बुरा शब्द नहीं निकल पाएगा, गाली नहीं निकल पाएगी और जो बात नहीं कहनी है वह शब्द भी नहीं निकल पाएगा। वहीं अपने आप संयम हो पाएगा । हम अपने शरीर के प्रति जागरूक बन गए, क्रिया के प्रति जागरूक बन गए फिर कोई भी कदम ऐसा नहीं उठेगा कि जो अन्यायपूर्ण हो सके। हाथ का उपयोग है; बहुत उपयोग है, पर हाथ का उपयोग चांटा जड़ने में भी होता है । हाथ का उपयोग धक्का-मुक्का में भी होता है । पैर का उपयोग भी मारने में होता है, और और कामों में भी होता है, किन्तु जब हम अपने शरीर के प्रति जागरूक बन गए तो ये सारे उपयोग समाप्त हो जाते हैं । केवल जो होना चाहिए वही शेष रहता है ।
हृदय परिवर्तन को यदि हम वास्तव में चाहते हैं, हमारी निष्ठा है, अहिंसा का विकास चाहते हैं तो निश्चित ही हमें अभ्यास करना होगा। अभ्यास के बिना न जागरूकता बढ़ेगी, न समता की चेतना जागेगी और न एकाग्रता बढ़ेगी। आज इसीलिए धर्म प्रभावहीन बन गया कि कोरा सिद्धांत रह गया, प्रयोग छूट गया, अनुभव छूट गया। कोरा तर्क रह गया, अनुभव समाप्त हो गया। धर्म को फिर से तेजस्वी बनाने के लिए, धर्म को फिर से शक्तिशाली और उपयोगी बनाने के लिए बहुत जरूरी है कि सिद्धांत और प्रयोग- दोनों का योग हो । सिद्धान्त और अभ्यास - दोनों का योग होने पर ही धर्म तेजस्वी बनेगा, धर्म के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ेगा और धार्मिक व्यक्तियों का जीवन यथार्थ होगा ।
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