________________
विधेयात्मक भाव
१८१
इस दुनिया में बहुत हैं जो अपनी बात से मुकर जाते हैं, इनकार कर जाते हैं, उन आदमियों के मुखद्वार नहीं होता, मलद्वार होता है। अत: मैंने कहा-दुनिया में मलद्वार अधिक हैं। मामला निपट गया।
इसी प्रकार आज दुनिया में मलद्वार-निषेधात्मक भाव अधिक हैं। होना तो यह चाहिए कि विधायक भाव अधिक हों, या दोनों समतुल्य हों। पूरा समीकरण हो। किन्तु समीकरण है नहीं। निषेधात्मक भावधारा अधिक तेज है, गतिशील है, इसलिए वाणी की विषमता, भावों की विषमता और आचरणों की विषमता अत्यधिक मात्रा में है। जब निषेधात्मक भावों का इतना आधिपत्य है, वहां विधायक भावों को जगा पाना बहुत कठिन हो जाता है। बड़ी समस्या है। किन्तु जब हृदय-परिवर्तन की समस्या पर विचार करते हैं तो हमें एक प्रयत्न करना होगा। वह प्रयत्न होगा कि हम ऐसे आलंबनों को स्वीकार करें, जिनके द्वारा निषेधात्मक भाव की धारा गौण बन जाए और विधायक भावों की धारा प्रधान बन जाए।
आदमी किसी भी चीज को यकायक मिटा नहीं सकता। जो स्थिर हो जाता है उसे निकालना कठिन होता है। यह व्यवहार में भी हम देखते हैं जो अफसर गजटेड लिस्ट में आ जाते हैं, फिर सरकार भी उन्हें अवधि से पहले निकाल नहीं सकती। यदि सरकार ऐसा करती है तो न्यायालय उस अफसर की मदद करने के लिए तैयार है। निलंबित व्यक्ति की सर्विस पुन: चालू हो जाती है। सरकार को न्यायालय का आदेश मानना होता है। सरकार निलंबित नहीं कर सकती पर इतना अवश्य कर सकती है कि अफसर को ऐसे प्रदेश या स्थान में स्थानान्तरित कर देती है कि उसे बिना निलम्बन, निलम्बन का अनुभव हो जाता है।
निषेधात्मक भावों की भी यही स्थिति है। वे इतनी दृढ़ता से स्थापित हो चुके हैं कि उन्हें निलम्बित करना, निकाल बाहर करना, किसी के वश की बात नहीं है। पर इतना अवश्य किया जा सकता है कि उनकी मुख्यता को छीनकर, उन्हें गौणता दी जाती है। जब विधायक भाव प्रबल होता है तब निषेधात्मक भाव निर्बल हो जाता है। विधायक भाव को प्रबल करने का एक मात्र उपाय है-प्रेक्षा, देखना। वस्तुत: हम देखना नहीं जानते, साथ में मिल जाना जानते हैं। हम घटना के द्रष्टा बनना नहीं जानते, उसे भोगना जानते हैं। जब-जब हम घटना के साथ जुड़ते हैं, तब-तब घटना को भोगने लग जाते हैं और निषेधात्मक भावों को उभरने का प्रोत्साहन मिलता है। यदि हम द्रष्टा बनकर रह सकें, घटना को जान सकें, घटना को देख सकें तो निषेधात्मक भाव अपने आप कमजोर हो जाते हैं, गौण हो जाते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org