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भय के स्रोत
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४. भय के परमाणुओं का उत्तेजित होना
। भय की उत्पत्ति का यह चौथा स्रोत बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति के समक्ष कोई उद्दीपक स्थिति नहीं है, कोई भय की स्थिति नहीं है, न कोई भय का चिन्तन चलता है, न भय देने वाली वार्ता ही हो रही है, बुद्धि में भय समाया हुआ है, कुछ भी नहीं है, फिर भी भय वेदनीय कर्म के परमाणु सक्रिय होते ही भय लगने लग जाता है। यह बाहरी कारणों से होने वाला भय नहीं है। इसकी उत्पत्ति का मूल कारण है आन्तरिक । बाह्य कारणों की अपेक्षा से इसे अहेतुक या अकारणिक भय कहा जाता है। यह केवल अपने भीतर संचित भय के परमाणुओं की सक्रियता से उत्पन्न होता है। अकारण ही भय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, अकारण ही डर बरसने लग जाता है।
हम परिस्थितिवाद से बहुत परिचित हैं। बाहरी निमित्तों और परिस्थितियों को हम जानते हैं, किन्तु आन्तरिक वातावरण को नहीं जानते, उससे अधिक परिचित नहीं है।
मनोविज्ञान ने इस विषय पर अवश्य ही चिन्तन किया था कि हमारे जो ज्ञान के विषय हैं, वे कभी चेतन मन में होते हैं। कभी अवचेतन मन में होते हैं और कभी अचेतन मन में होते हैं। तीनों मानसिक प्रक्रियाओं में ये चलते रहते हैं। एक बात अभी चेतन मन में है, ध्यान बदलते ही वह बात अवचेतन मन में चली जाती है। और दो मिनट बाद भुला दी जाती हैं। कहां चली जाती है ? अभी हम एक विषय पर बात मा ध्यान कर रहे थे, दो मिनट बीता, बात का विषय बदल गया, मन दूसरे बिन्दु पर जा टिका। क्या बात समाप्त हो गयी ? नहीं, वह चेतन मन से उतर गयी, समाप्त नहीं हुई। वह भीतर में चली गई, गहरे में चली गई। वह अवचेतन मन में चली गई। वह वहां अंकित हो गयी, उसका प्रतिबिंबन हो गया। अवचेतन और चेतन के विषय बदलते रहते हैं। एक चक्र चलता रहता है। अवचेतन की बात चेतन में जाती है और चेतन की बात पुन: अवचेतन में चली जाती है। यह चक्र रुकता नहीं। इसलिए भूली हुई बातें भी कभी-कभी याद हो जाती हैं। बात के याद आते ही आदमी कभी डर जाता है, कभी कुपित हो जाता है, कभी स्नेह से अभिभूत हो जाता है।
अवचेतन की बात अस्पष्ट होती है और चेतन की बात स्पष्ट होती है। जो बात चेतन मन में उतरती है, उसका स्पष्ट अवबोध होता है और जो बात अवचेतन मन में चली जाती है, वह अस्पष्ट हो जाती है। चेतन की बात सीमित होती है, अवचेतन में जाकर वह फैल जाती है, बड़ी बन जाती है। अध्यात्म विज्ञान में इस विषय पर सूक्ष्म पर्यालोचन किया गया था, मनोविज्ञान से भी बहुत आगे बढ़कर । पूरा का पूरा कर्म-सिद्धांत इसी आधार पर खड़ा
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