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भय की परिस्थिति
प्रसन्नता हमारे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। आदमी हर्ष और शोक-दोनों से गुजरता है। हर्ष कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है और इसलिए नहीं है कि हर्ष के पीछे शोक जुड़ा हुआ है। कभी हर्ष होता है और कभी ऐसी परिस्थिति आती है कि आदमी शोक में डूब जाता है। शोक भी बहुत बुरी बात नहीं है। आदमी शोक में होता है तो कभी हर्ष भी आ सकता है।
हर्ष और शोक से परे है प्रसन्नता। प्रसन्नता हमारे चित्त की निर्मलता है। उसमें न हर्ष होता है और न शोक होता है। आकाश प्रसन्न होता है तब न बादल होते हैं, न वर्षा होती है, न अंधड़ होता है, कुछ भी नहीं होता, आकाश साफ होता है। केवल निर्मलता, केवल उज्ज्वलता, केवल प्रकाश। प्रसन्नता हमारे चित्त की निर्मलता की स्थिति है, किन्तु उसमें बाधाएं बहुत हैं। जो बड़ी उपलब्धि होती है, वह बाधाशून्य नहीं होती। विशेष प्राप्ति के लिए बाधाएं आती हैं, विघ्न और संकट आते हैं। बिना बाधाओं के यदि बड़ी उपलब्धि हो जाए तो वह उपलब्धि भी बड़ी नहीं, छोटी बन जाती है। बड़ी उपलब्धि का अर्थ है कि उसकी प्राप्ति में कितनी घाटियां पार की हैं ? कितने आरोह और अवरोह आए हैं? चलते-चलते जब चरण थक जाते हैं और तब जो मंजिल मिलती है, वही बड़ी मंजिल होती है।
प्रसन्नता एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। अभय और प्रसन्नता का जोड़ा है। दोनों साथ-साथ रहते हैं। ऐसा नहीं होता कि अभय हो और प्रसन्नता न हो या प्रसन्नता हो और अभय न हो। भय आते ही प्रसन्नता मिट जाती है।
मनुष्य का जीवन परिस्थितियों के चक्र से जुड़ हुआ है। उसकी बहुत लम्बी श्रृंखला है। उसको तोड़ा नहीं जा सकता। प्रसन्नता को समाप्त करने वाली या भय पैदा करने वाली कुछेक परिस्थितियां हैं। उनको जानना बहुत आवश्यक है।
वे परिस्थितियां सात हैं१. इहलोक भय ५. वेदना भय २. परलोक भय ६. मरण भय ३. आदान भय ७. अश्लोक भय-अयश का भय । ४. अकस्मात् भय
भय की पहली परिस्थिति है-इहलोक भय । इहलोक का अर्थ है मनुष्य जगत्। आदमी आदमी से डरता है। आदमी आदमी के लिए भय पैदा करता
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