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आधार पर किसी प्रसाद को खड़ा कर दिया तो वह निर्माण केवल बालू की नींव पर किया हुआ निर्माण होगा। उसका कोई अस्तित्व नहीं होगा ।
तर्क पुष्ट आधार नहीं बनता । पुष्ट आधार बनता है प्रेक्षा, दर्शन । प्रेक्षा एक मार्ग है साक्षात्कार का । साक्षात्कार पर कोई तर्क प्रस्तुत नहीं किया जा सकता । प्रेक्षा है - जानो और देखो। इसमें कोई मान्यता नहीं, कोई तर्क नहीं, कोई हाइपोथिसिस नहीं, कोई विकल्प नहीं, केवल जानना, केवल देखना | जितना जाना देखा है वह सही है । नहीं जाना वह शेष अनन्त है । सही और शेष - उसे जानना देखना है । आचार्य भिक्षु ने कहा था- मन में जिज्ञासा या संदेह उभरे, उसका समाधान कर लो। दूसरों को पूछो और वे जो कहें उसे समझने का प्रयत्न करो । बुद्धिगम्य हो तो स्वीकार कर लो और यदि बुद्धि में न बैठे तो उसे यह समझ कर छोड़ दो कि यह बात अभी मेरी समझ से परे है। मेरे गले नहीं उतर रही है । मेरी बुद्धि में नहीं समा रही है । पर मैं कोई सत्य का ठेकेदार तो नहीं हूं। 'मैं सोचता हूं वही सही है ' - यह ठेकेदारी सत्य के जगत् में नहीं चलती । छोड़ दो उस बात को । आग्रह मत करो। यह कहो, मेरी छोटी बुद्धि में तुम्हारी बात नहीं समा रही है । तुम कहते हो वह ठीक हो सकता है, पर अभी मैं उसे स्वीकार नहीं कर सकता । यह ऋजु मार्ग है।
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अभयदान
हम सही मार्ग को स्वीकार करें । सही मार्ग है शरीर को जानना, शरीर के नियमों को जानना, मूर्च्छा के नियमों को जानना । मूर्च्छा के दो माध्यम हैं - कर्म - शास्त्रीय भाषा में सूक्ष्म शरीर और शरीर शास्त्रीय भाषा में ग्रन्थियां, ग्रन्थितंत्र। सूक्ष्म शरीर में ऐसे संस्कार एकत्रित हैं, मूर्च्छा के इतने परमाणु संकलित हैं, इतने घने परमाणु हैं कि जब-जब वे सक्रिय होते हैं, तब-तब संवेग की विभिन्न अवस्थाएं निर्मित होती हैं । कभी क्रोध, कभी अहंकार, कभी वासना और कभी घृणा का भाव, कभी ईर्ष्या और आसक्ति का भाव, कभी अप्रियता और भय का भाव-ये रूप निर्मित होते हैं। ये सारे मूर्च्छा, संवेग और आवेग हैं। ये सारे इमोशनल व्यवहार हैं । ये संवेगात्मक व्यवहार पैदा होते रहते हैं, इनका हमें अनुभव होता रहता है । यह है कर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण |
शरीर शास्त्रीय दृष्टिकोण यह है- बाह्य निमित्तों और उद्दीपनों की स्थिति में शरीर में जो प्रतिक्रियाएं होती हैं, उनसे संवेग जागते हैं, कभी भय का, कभी क्रोध का तो कभी लड़ने का ।
हमें समझना है स्थूल शरीर को और सूक्ष्म शरीर को । इन दोनों शरीरों को समझे बिना आत्मा को समझने की बात हास्यास्पद लगती है । मैं
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