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कैसे सोचें ?
चित्त वृत्तियों का यह चक्र भी निरन्तर गतिशील रहता है। कभी क्रोध, कभी भय, कभी वासना, कभी राग, कभी घृणा, कभी द्वेष, कभी लिप्सा, कभी महत्त्वाकांक्षा-एक के बाद दूसरी वृत्ति उभरती रहती है और अपना पूरा चित्र प्रस्तुत करती है। इन सारी वृत्तियों में भय का स्थान प्रमुख है। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने तीन प्राथमिक संवेग माने हैं-भय, क्रोध और स्नेह। ये तीनों बड़े हैं और आदमी के जीवन के साथी हैं, सदा साथ रहने वाले हैं। ये ही अधिक उभरते हैं।
___ भय बहुत बड़ा संवेग है। आदमी को हर बात में भय लगता है, भय के बाद भय, भय छूटता ही नहीं। कोई न कोई भय बना ही रहता है। एक भय को छोड़ने का प्रयत्न करते हैं तो दूसरा भय सामने उभर आता है।
एक आदमी को डर बहुत सताता था। वह एक समझदार आदमी के पास गया और बोला-मुझे डर बहुत लगता है कभी भूत का, कभी प्रेत का डर सताता ही रहता है। ऐसा कोई उपाय बताओ कि मेरा डर छूट जाए। उसने एक उपाय किया। एक ताबीज बना कर दिया और कहा-'इसे हाथ पर बांध दो, डर नहीं लगेगा।' उसने ताबीज को हाथ पर बांध दिया। कुछ महीने बीते। वह फिर मिला। उसने पूछा-क्या तुम्हारा भय समाप्त हो गया ? अब डरते तो नहीं ? उसने कहा, अब न भूत का डर सताता है और न प्रेत का भय सताता है। भय सारे समाप्त हो गए हैं, पर एक भय सदा बना रहता है कि कहीं यह ताबीज गुम न हो जाए। यह डर निरन्तर बना का बना रहता
एक भय मिटा तो दूसरा भय पैदा हो गया। भय को मिटाने का भी भय पैदा हो गया। मनुष्य की ऐसी ही प्रकृति है कि वह उसे छोड़ नहीं सकता, क्योंकि भय उसका चिरसाथी है।
हमें भय के स्रोत को खोजना होगा। यह क्यों होता है ? इसका मूल कारण क्या है ? मूल स्रोत क्या है ? हम उद्दीपक स्थितियों को जानते हैं, उत्तेजना की स्थितियों को हम जानते हैं। जब भय की उद्दीप्त करने वाली स्थिति सामने आती है, आदमी डर जाता है। तेज आवाज हुई, एक धमाका हुआ, आदमी डर जाता है। बादल गरजता है आकाश में और आदमी डर जाता है पृथ्वी पर। बिजली कौंधती है आकाश में और आदमी डर जाता है पृथ्वी पर। बिजली कड़कती है और आदमी के प्राण छूटने लग जाते हैं। तेज आवाज एक उद्दीपक स्थिति है भय की।
रात का समय है। दो साथी मार्ग से गुजर रहे हैं। एक साथी पीछे रुक जाता है। दूसरा अपनी ही धुन में चला जा रहा है। उसे जब ज्ञात होता है
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