Book Title: Kaise Soche
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 221
________________ २१४ कैसे सोचें ? मैं न इस प्रश्नों को पूछना चाहता हूं और न इन प्रश्नों के उत्तर देने में ही मुझे रस है। मैं तो यह प्रश्न पूछना चाहता हूं कि आप शरीर को मानते हैं या नहीं मानते ? शरीर को जानते हैं या नहीं जानते ? आत्मा को मानने-जानने की बात छोड़ दें। आप सबसे पहले शरीर को जानने-मानने का प्रयत्न करें। जब तक आपने शरीर को नहीं जाना, आप आत्मा को कैसे जान पाएंगे ? आपने जब तक शरीर को ही नहीं जाना, आप कैसे जान पाएंगे ईश्वर या परमात्मा को। हमारी कुछ बंधी-बंधाई परिभाषाएं हैं। हमने शब्दों को इस प्रकार रट लिया, पकड़ लिया कि हम स्वयं उलझते हैं और दूसरों को उलझाते हैं। मैं पूछना चाहता हूं कि क्या आपके पास कोई शक्ति है जिससे आज आत्मा को जान सकें ? क्या आप इन इन्द्रियों के द्वारा ही आत्मा को, ईश्वर और परमात्मा को जानना चाहते हैं ? आपके पास साधन कहां है ? बहत गरीब स्थिति में जी रहे हैं। इतनी दयनीय स्थिति है कि आदमी के पास साधन तो बहुत कमजोर है और वह आकाशीय उड़ान भरना चाहता है। कमजोर साधनों से ऊंची उड़ान नहीं भरी जा सकती। पहले हमारे साधन मजबूत होने चाहिए। पैरों में ताकत तो है नहीं जमीन पर चलने की और हिमालय पर चढ़ना चाहते हैं। हमारी इन्द्रियां जिनके आधार पर हम अपनी ज्ञानात्मक प्रवृत्तियों का संकलन करते हैं, कितना कमजोर साधन है। हम आत्मा या ईश्वर के बारे में जानते हैं या तो पुराने ग्रन्थों के आधार पर या आपस में चर्चा करके, तर्क-वितर्क करके। ये दो ही तो साधन हैं-शास्त्र या तर्क। जिस ग्रन्थकार ने लिखा, उसकी गहराई में पहुंचे बिना कैसे कहा जा सकता है कि वह सचाई है ? सचाई को मापने का कोई साधन ही नहीं है। दूसरी बात है कि सभी ग्रन्थकार एकमत नहीं हैं। एक कहता है आत्मा है, दूसरा कहता है कि आत्मा नहीं है। एक कहता है ईश्वर है, दूसरा कहता है ईश्वर नहीं है, एकरूपता नहीं है, एकवाक्यता नहीं है। इस स्थिति में कैसे प्रमाणित किया जा सकता है कि अमुक ग्रन्थ सही है और अमुक ग्रन्थ सही नहीं है। क्या कोई सबल साधन है ? आदमी के पास एकमात्र साधन है तर्क। तर्क का आधार क्या है ? इन्द्रियों के द्वारा विषयों का संग्रहण होता है। मन के द्वारा व्याप्ति बनती है। व्याप्ति और प्रत्यक्ष दर्शन के आधार पर अनुमान और तर्क का महल खड़ा किया जाता है। इतना कमजोर है हमारा आधार, हमारा साधन कि एक तर्क दूसरे तर्क को काट देता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि व्यक्ति स्वयं अपने ही तर्कों को काटता चला जाता है। आज एक तर्क प्रस्तुत करता है तो कल दूसरा तर्क सामने ला देता है। आखिर यह माना हुआ ही तो है। जब तक हमने साक्षात्कार नहीं किया, किसी मान्यता के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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