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कैसे सोचें ?
शक्तिशाली हो। सब कुछ कर सकते हो तो एक काम कर दिखाओ। वह काम है स्वयं की छाया को पकड़ना। सूरज उदय हो रहा है। जाओ, अपनी छाया को पकड़ो।' उसने कहा-'अभी पकड़ता हूं। यह भी कोई काम है।' वह दौड़ा छाया को पकड़ने। जैसे-जैसे दौड़ता है, छाया आगे बढ़ती जाती है। अपनी छाया को पकड़ने की दौड़ में वह पसीने से तरबतर हो गया। श्रम बहुत किया, पर सफल नहीं हुआ। ज्यों दौड़ता है छाया आगे सरक जाती है। निराश हो गया।
अकस्मात् सामने से संत आ गए। उन्होंने पूछा-'अरे हिम्मत ! यह क्या? इतने परेशान क्यों हो रहे हो ?' वह बोला-महाराज ! आज तक मैं कभी अपने काम में असफल नहीं हुआ। आज सफलता दूर भाग रही है। परेशान हूं। मार्गदर्शन करें। मैंने अपनी छाया को पकड़ने का वादा किया है, पर अभी तक इसे पकड़ नहीं पाया हूं। आप उपाय बताएं। सन्त बोले-'बहुत सीधी बात है। तुम अपना मुंह मोड़ लो।' उसने मुंह मोड़ा। दिशा बदल गयी। जैसे ही दिशा बदली छाया पकड़ में आ गयी। जहां खड़ा है, वहीं उसकी छाया स्थिर है।
जब दिशा बदलती है तब छाया पकड़ में आ जाती है। आदमी छाया और माया के लिए दौड़ता है। पर न छाया पकड़ में आती है और न माया पकड़ में आती है। सब आगे से आगे बढ़ती जाती हैं। ऐसी मरीचिका है, जिसे कभी पकड़ा नहीं जा सकता। जैसे ही दिशा का परिवर्तन होता है, छाया भी पकड़ में आ जाती है, माया भी पकड़ में आ जाती है और काया भी पकड़ में आ जाती है। सब कुछ पकड़ में आ जाता है।
मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसने दिशा को बदला है, मौलिक वृत्तियों का परिष्कार किया है, हृदय का परिवर्तन किया है, चेतना का रूपान्तरण किया है। इस सारे संदर्भो में कहा जा सकता है कि मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है हृदय का परिवर्तन, चेतना का रूपान्तरण और मौलिक मनोवृत्तियों का परिष्कार।
हृदय-परिवर्तन के आधार पर समाज में नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा हुई। किसी प्राणी जगत् में नैतिक मूल्य जैसा कोई तत्त्व नहीं होता। आवश्यक भी नहीं है, क्योंकि उनके पास बुद्धि का इतना विकास नहीं है। जहां बुद्धि का विकास नहीं होता वहां नैतिक मूल्यों की स्थापना हो ही नहीं सकती। बुद्धि के द्वारा अनैतिक मूल्यों की भी स्थापना होती है। बेचारे दूसरे प्राणियों में
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