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हृदय परिवर्तन के प्रयोग
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कुशलता बढ़ती जाए यह हमारी कौशल-वृद्धि का उपाय है। यह हमारी कुशलता का दर्शन है, सक्रियता का दर्शन है। ध्यान अकर्मण्यता या निष्क्रियता का दर्शन नहीं है। ध्यान यदि अकर्मण्यता का या जीवन की विफलता का दर्शन होता तो आज शायद सब लोग ध्यान करने लग जाते। यह कहना सच है कि समाज के शत-प्रतिशत लोग विफलता का काम करते हैं और सफलता का काम पांच-दस प्रतिशत लोग करते हैं। असफलता के जितने काम हैं, हर आदमी उनका आचरण करता है। सफलता के काम का आचरण हर आदमी नहीं करता। यदि सारे लोग सफलता के कार्य का आचरण करते तो वही प्रश्न उपस्थित होता जो पुराने जमाने में उपस्थित हुआ था। धर्म-स्थान में भीड़ को देखकर एक आदमी ने संतों से कहा-महाराज ! ये सारे लोग धार्मिक लोग हैं, धर्म करने वाले हैं, अब स्वर्ग में इतनी भीड़ हो जाएगी कि वहां स्थान ही खाली नहीं मिलेगा। जैसे आज के वैज्ञानिकों को भी ऐसी ही चिन्ता है कि यदि आबादी इस रफ्तार से बढ़ती गई तो वह दिन दूर नहीं है, जिस दिन भूमि पर आदमी को पैर रखने की जमीन भी नहीं मिल पाएगी।
___ ध्यान यदि विफलता का सूत्र होता तो यहां बड़ी भीड़ लग जाती। सब के सब लोग ध्यानी बन जाते। स्वर्ग में अपार भीड़ हो जाती। ध्यान सफलता का सूत्र है इसीलिए उसे सभी लोग अपनाने में झिझकते हैं। उन्हें संदेह होता है कहीं सफल हो न जाऊं।
प्रमाद को निरस्त करने का तथा सफलता की उपलब्धि का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है-प्राणकेन्द्र और दर्शनकेन्द्र पर ध्यान करना।
एक समस्या और है। वह है बाहरी आकर्षण। उसका भी संतुलन अपेक्षित होता है। बाहरी आकर्षण के साथ-साथ भीतरी आकर्षण भी पैदा करें। दोनों का संतुलन साधे, जिससे बाहर की गति में अवरोध न हो और भीतर की बेचैनी न बढ़े, भीतर का असंतोष न उभरे। आदमी उस प्रगति के पथ पर पैर न बढ़ाए, जो प्रगति एक दिन मनुष्य-जाति के विनाश और संहार का हेतु बन जाए। जो मनुष्य-जाति को ही लील जाए वैसी प्रगति वांछनीय नहीं है। यदि ऐसी प्रगति हो तो उस पर नियंत्रण की क्षमता होनी चाहिए। इस बाहरी आकांक्षा, आकर्षण और अतृप्ति पर नियन्त्रण करने का उपाय है-विशुद्धिकेन्द्र पर ध्यान करना और आनन्दकेन्द्र की प्रेक्षा करना। ये दो उपाय ऐसे हैं, जिनसे भीतर का आकर्षण बढ़ता है, बाहर का आकर्षण कम होता है। आनंद-केन्द्र वह महान् पर है, जो हमें अन्दर प्रविष्ट कराता है।
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