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अपने बारे में अपना दृष्टिकोण (२)
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होगा ? शिष्य कभी ऐसे ही गुरु नहीं बन सकता। गुरुता प्राप्त किए बिना गुरु नहीं बन सकता। विद्यार्थी अध्यापक की कुर्सी पर बैठकर अध्यापक का काम नहीं कर सकता। पहले तंत्र को लेना होता है और फिर तंत्र को देना होता है। स्वतंत्रता वास्तव में परतंत्रता की एक निष्पत्ति है। यह परिणाम है कि जो व्यक्ति परतंत्र रहा है वही व्यक्ति वास्तव में स्वतंत्र हो सकता है। - मुझे एक बात याद आती है। हम लोग जब आचार्यवर के पास पढ़ते थे, आचार्यवर एक बात कहा करते थे कि देखो, अभी तुम मेरे अनुशासन में रहो, मैं जो कहूं वह करो, अपनी मनचाही मत करो, किसी से बातें मत करो, समय को व्यर्थ ही मत गंवाओ। अगर मेरी यह बात ५-७ वर्ष मान लोगे तो जीवन भर इतने स्वतंत्र हो जाओगे कि फिर चाहे सो करो। तुम्हें टोकनेवाला, रोकनेवाला कोई नहीं होगा। और अभी मेरी बात नहीं मानोगे तो जीवन भर इतने परतंत्र रहोगे कि जीवन भर कोई न कोई तुम्हारे पर रहेगा, कहता ही रहेगा कि यह मत करो, वह मत करो, तुमने ठीक नहीं किया, रोका-टोकी जीवन भर चलेगी। यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि जो व्यक्ति अच्छा शिष्य होता है वही अच्छा गुरु बन सकता है। जिसने शिष्य का जीवन नहीं जीया वह गुरु का जीवन कभी नहीं जी सकता।
परतंत्रता कोई बुरी बात नहीं है। सामाजिक जीवन का एक अंग है अनुशासन और सामाजिक जीवन का दूसरा अंग है परतंत्र रहना, दूसरे के तंत्र में रहना। आप उसे उस अर्थ में न लें कि हमारे राष्ट्र में किसी दूसरे का शासन हो। परतंत्र का इतना ही अर्थ नहीं है। परतंत्र का अर्थ है जिसकी क्षमता विकसित नहीं है, जितनी क्षमता विकसित नहीं है, उस क्षमता को पाने के लिए दूसरे के तंत्र को स्वीकार करना।।
। क्या यह आज नहीं हो रहा है ? ऐसा हो रहा है। सैकड़ों-सैकड़ों विद्यार्थी अध्ययन के लिए अमेरिका जाते हैं। जर्मनी में जाते हैं, बाहर जाते हैं। वहां के यहां आते हैं। विद्यार्थियों का आदान-प्रदान हो रहा है। इसलिए हो रहा है कि जो कला वहां विकसित है और यहां नहीं है उसे सीखने के लिए विद्यार्थी वहां जाता है। इसका मतलब है कि परतंत्र में जा रहा है। जो बात वहां नहीं है और यहां है उसे सीखने के लिए विद्यार्थी यहां आ रहा है। हर किसी आदमी को सीखने के लिए दूसरे के यहां जाना होता है, क्योंकि हर बात हर आदमी में विकसित नहीं होती। हर बात हर राष्ट्र और देश में विकसित नहीं होती।
प्राचीनकाल में धर्म संप्रदायों में एक उपसंपदा चलती थी। जैन शासन में भी उपसंपदा का वर्णन आता है। एक संघ का साधु जब देखता है कि मेरे
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