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कैसे सोचें ?
और जो बनता है वह जानता नहीं।
एक बहुत रहस्य भरी बात आचार्य ने कही, कोई किसी को जानता नहीं। कहते तो हैं कि मैं अपने परिवार वालों को जानता हूं, अपने पड़ोसी को जानता हूं, दिल्ली वालों को जानता हूं, आस-पास के लोगों को जानता हूं, पर कोई किसी को सचमुच जानता ही नहीं। हर आदमी के बीच में इतनी दीवारें चिनी हुई हैं, बड़ी-बड़ी दीवारें कि उनके पार झांकना संभव ही नहीं हो पा रहा है। केवल अपनी कल्पना का आदमी हमारे सामने होता है। एक कल्पना की इमेज और कल्पनाओं की मूर्ति हमारे सामने होता है। कल्पना के आधार पर हम काल्पनिक व्यक्ति को जानते हैं, हम मूल को नहीं जानते। परछाई को जानते हैं, मूल को नहीं जानते। यह सारी परछाइयों का दर्शन चल रहा है और प्रतिबिम्बों के आधार पर हमारी सारी लड़ाइयां चल रही हैं। बिम्ब तक कोई पहुंचता ही नहीं। केवल प्रतिबिम्ब और प्रतिबिम्ब, सिर्फ परछाई और परछाईं ! होता यह है मूल चला जाता है और उसकी परछाई रह जाती है।
__एक नगर में देखा, सड़क पार कर रहे हैं, सामने एक मजबूत दीवार है। दरवाजा है और ताला लगा हुआ है। ऐसा लगता है कि कितनी व्यवस्था है, भीतर कोई जा ही नहीं सकता। थोड़ा आगे गए, मुड़कर देखा, तो पीछे की सारी दीवार खंडहर है, टूटी हुई है, नीचे गिरी हुई है। मकान रहा ही नहीं, मकान ही गिर गया। पार्श्व की दीवारें गिर गईं। तीन तरफ की दीवारें गिर गईं, मकान गिर गया, आगे की दीवारें खड़ी हैं, दरवाजा खड़ा है, ताला लगा है। मजबूत ताले को खोल नहीं सकते। बड़ी विचित्र बात है। आस-पास नहीं, पृष्ठभूमि नहीं। जीवन का आधार नहीं, जीवन का पार्श्व नहीं। और आगे बहुत मजबूत ताला लगा हुआ है। यह स्थिति बन जाती है व्यक्ति की कि मूल बात चली जाती है, परछाई रह जाती है। बिम्ब समाप्त हो जाता है, प्रतिबिम्ब शेष बच जाता है।
इस प्रतिबिम्ब की दुनिया में बिम्ब को देखना बहुत कठिन समस्या है। सारी मित्रता, सारी शत्रुता बिम्ब के आधार पर नहीं हो रही है। जिसको मित्र मान रहे हैं उसका बिम्ब भी हमारे हाथ में नहीं आया। जिसको शत्रु मान रहे हैं उसका बिम्ब भी हमारे हाथ में नहीं आया है। हो सकता है कि जिसे मित्र माना जा रहा है, वह ज्यादा शत्रु हो और जिसे शत्रु माना जा रहा है वह ज्यादा मित्र हो। हमारे पास ऐसी शुद्ध दृष्टि नहीं, ऐसी आंख नहीं जो मित्र या शत्रु को देख सके।
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