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परिस्थितिवाद और हृदय-परिवर्तन
हम ज्ञात और अज्ञात-इन दोनों के मध्य में जीते हैं। एक है ज्ञात मन और दूसरा है अज्ञात मन। हम कुछ जानते हैं और बहुत नहीं जानते।
एक कहानी है। एक राजा था। बीमार हो गया। वैद्य बुलाए, चिकित्सा कराई। ठीक नहीं हुआ। एक वैद्य आया। उसने निदान किया। निदान सही हुआ। दवा दी। राजा स्वस्थ हो गया। एक पथ्य था-आम नहीं खाना है। वैद्य ने कहा-'राजन् ! वर्तमान में ही नहीं, भविष्य में भी कभी आपको आम नहीं खाना है। जिस दिन आम खा लिया, बीमारी फिर प्रकट हो जायेगी। यदि स्वस्थ रहना है, बीमारी से बचना है तो आम से भी बचना होगा ।' निर्देश देकर वैद्य चला गया। राजा बहुत स्वस्थ था। एक दिन अपने मंत्रियों, सहयोगियों और कर्मचारियों के साथ राजा उद्यान-यात्रा के लिए निकला। उद्यान में गया। आम का मौसम था। सारे वृक्ष आम से लदे हुए थे। वे पके हुए आम। अच्छा रंग और बहुत मीठी-मीठी सुगन्ध ! राजा का मन ललचाया। एक मन बोला-आमों के नीचे जाऊं। दूसरा मन बोला-नहीं, नहीं जाना चाहिए। एक ओर से आकर्षण आ रहा है तो दूसरी ओर से कुछ निरोध आ रहा है। राजा हट कर चला। थोड़ी देर में फिर मन ललचाया, सोचा कि आमों के नीचे जाऊं, आम की छाया में जाकर बैतूं। मन हुआ। दूसरा मन बोला-नहीं जाना चाहिए।
__केवल राजा का मन ही ऐसा नहीं हुआ, हर आदमी का मन ऐसा होता है। कौन व्यक्ति है जिसके मन में ये दो प्रकार की धाराएं न आती हों ? एक मन कहता 'खाऊं।' दूसरा मन कहता है-'नहीं खाऊं।' खाना है, नहीं खाना है। एक मन कहता है-'मुझे बहुत अच्छा रहना है, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करना है। शांति का जीवन बिताना है।' दूसरा मन कहता है-'सामने वाला लड़ता है तो मुझे क्यों नहीं लड़ना चाहिए ? सामने वाला गाली देता है तो मुझे गाली क्यों नहीं देनी चाहिए ? यह कहां का तर्क और न्याय कि सामने वाला व्यक्ति तो जो चाहे करता चला जाये और मैं मौन रहूं ? क्या मैं मोम का बना हुआ हूं ? क्या मैं मिट्टी का बना हुआ हूं ? मिट्टी का तो नहीं हूं, मोम का तो नहीं हूं। सामने वाला मेरे साथ छेड़छाड़ न करे तो मैं भी कुछ नहीं करूंगा और वह करता है तो मैं क्यों नहीं करूं ?'
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