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प्रतिक्रिया से कैसे बचें ? ( १ )
आज मेरा जन्म दिन है । यह अब बताने में संकोच नहीं है, क्योंकि आप पहले जान चुके हैं। मैं एक नए संकल्प के साथ प्रवेश कर रहा हूं और वह संकल्प है- 'अहिंसा का और अधिक विकास ।'
लोग जानना चाहते हैं मेरे जीवन के बारे में और मेरे विकास के बारे में। पूछते हैं कि आपने इतना अधिक कैसे लिखा ? इतना विकास कैसे किया ? मैं बताना चाहता हूं कि मुझे एक सूत्र मिला और वह सूत्र मेरे जीवन में सहज व्याप्त हो गया है । वह सूत्र है - प्रतिक्रिया से मुक्त रहना ।
हिंसा के दो रूप हैं- प्रतिक्रिया और दूसरा प्रतिशोध । मारना भी हिंसा है, पर आदमी हमेशा किसी को मारने की मुद्रा में नहीं रहता, किसी को मारता भी नहीं है । यदि वह रोज किसी को मारने लगे तो स्वयं पगला जाए। मारने की बात तो यदा-कदा जीवन में आती है । कोई आदमी अपराधी होता है, क्रूर होता है तो जीवन में किसी को मार डालता है । यह मारने वाली हिंसा हमारी दुनिया में कम चलती है। हिंसा के दो रूप ज्यादा चलते हैं - एक है प्रतिक्रिया और दूसरा है प्रतिशोध । प्रतिशोध से भी प्रतिक्रिया वाली बात ज्यादा चलती है ।
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जीवन में प्रतिदिन पचासों बार प्रतिक्रिया करते हैं, पचासों बार हिंसा का जीवन जी लेते हैं । बहुत बार ऐसा होता है कि हमारा श्वास हिंसा का श्वास बन जाता है । हमारा उच्छ्वास हिंसा का उच्छ्वास बन जाता है । जीवन में प्रतिक्रिया के बहुत प्रसंग आते हैं। मैंने बचपन से अपना एक सूत्र बनाया कि यदि मुझे अपने जीवन में सफल होना है, कुछ काम करना है तो इस प्रतिक्रिया के चक्कर में नहीं फंसना है । जो आदमी प्रतिक्रिया के चक्कर में फंस जाता है, उसकी सारी सृजनात्मक शक्तियां समाप्त हो जाती हैं, केवल ध्वंस और ध्वंस ही उसके सामने बचता है । वह कोई बड़ा काम नहीं कर सकता, क्योंकि आखिर शक्ति का एक स्रोत है। ऊर्जा का एक प्रवाह है। उसे इधर मोड़ दें, चाहे उधर मोड़ दें । किधर भी मोड़ दें । शक्ति तो आखिर है जितनी ही है । उसको किस दिशा में लगाना चाहते हैं, इसका चुनाव और निर्माण तो आपको ही करना है । शक्ति को ध्वंस में भी लगाया जा सकता है और शक्ति को सृजनात्मक कार्यों में भी लगाया जा सकता है । शक्ति को रचनात्मक बनाना है या शक्ति को ध्वंसात्मक बनाना है, यह हर व्यक्ति को चुनाव करना होता है 1
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