Book Title: Jain Shasan 2002 2003 Book 15 Ank 01 to 21
Author(s): Premchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
Publisher: Mahavir Shasan Prkashan Mandir
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गप्रधान श्री कालिकाचार्यजी श्रीन शासन (नधना प्रतापी पुरुषो) विशेषां वर्ष : १५. .. २६-११-२००२ विशाल परिवार के साथ प्रतिष्ठानपुर नगर की ओर अपना 'परंतुहाँ! किसीसंयोग में पंचमी कीछनहीं करसकते विहार प्रांरभ कर दिया।
है किंतु पंचमी की चतुर्थी अवश्य कर सकते है ।' प्रतिष्ठानपुर में सातवाहन राजा राज्य करता था, तो भगवंत ! आपकी महती कृपा होगी आप रहयोहि उसे आचार्य भगवंत के आगमन के समाचार मिले, संवत्सरीमहापर्वएकदिनपहले करनेकी आज्ञा फरमाइए।'
उसके आनंद का पार नरहा। उसने अत्यंत ही आदर सम्मान पूज्य आचार्यदेवश्री ने लाभालाभदेखकर उस वर्ष के साथ पूज्य आचार्य भगवंत का नगर प्रवेश कराया।
संवत्सरी की आराधना भादरवा सुदी 4 के दिन की। नगर प्रवेश के दिन से ही पूज्य आचार्य भगवंत की
तत्कालीनसमस्त संघ ने उनकीआज्ञा शिरोधार्य की। प्रवचनगंगा का प्रवाह तीव्र गति से बहनेलगा। श्रोतागण
1100 वर्ष बीतने के बाद भी आजसंवत्सरीमहापर्व भी पूज्य आचार्य श्री की पवित्र वाणी में आत्मस्नान कर
की आराधना भादरवा सुदी 4 के दीन हो रही है। यह अपनी पतित आत्मा को पावन करने लगे।
पूज्य आचार्यदेव श्री की अप्रतिम प्रतिभा काही प्रभाव है। दिन पर दिन बीतने लगे। ।
-शिष्य को बोध एक दिन आचार्य भगवंत ने निकट भविष्य में आ ake हे पर्वाधिराज महापर्व की महता समझाई।
विषमकाल के प्रभाव से कालिकाचार्य के शिष्य आचार्य भगवंत ने कहा 'पर्युषण यह जैनो का अविनीत हो गए। उन्होने उन शिष्यों को सुधारने के लिए महापर्व है, इस पर्व की आराधना कर सभी जीवों को
अनेक प्रयत्न किए...परंतु वे सब प्रयत्न निष्फल गए। भात्मशुद्धि करनी चाहिये।' ।
कालिकाचार्य वृद्ध हो चूके थे। एक दिन न शिष्यों को राजा ने पूछा, 'इस पर्व का प्रारंभ कबसे होगा?'
शिक्षा करने के ध्येय से शय्यातर को कहा, मेरे शिष्य आचार्य भगवंत ने कहा, 'भादरवा वदी १३ से इस
अविनीत और प्रमादी हो गए हैं, अत: उ-का परित्याग पर्व का प्रारंभ होता हैं और भादरवा सुदी ५ के दिन इस
कर अपनें प्रशिष्य 'सागर' के पास सुवर्ण भूमि की ओर पर्व की समाप्ति होती हैं। इन आठ दिनों में अंतिम दिनका अत्यधिक महत्व है।'
जा रहा हूँ..मैं उन्हे कहे बिना ही जाने वाला हूँ, क्यों कि राजा ने सोचा भादरवासुदीपंचमी के दिन तो इस
उच्छृखल शिष्यों के साथ रहना तो कर्मबंध का हेतु है, देश में इन्द्रध्वज का महोत्सव होता है और उस महोत्सव
मेरे चले जाने के बाद यदि उन्हे अपनी भूल समझ में आ संगपर मुझेअवश्य उपस्थित रहना पडता है।' इस प्रकार
जाए..और वे अत्यंत ही आग्रह करे तो बताना कि पूज्य सोचकर राजा ने कहा 'गुरुदेव! क्या इस संवत्सरी के आचार्य भगवंत सुवर्णभूमि गए है, अन्यथा नहीं।' हापर्व में कुछ परिवर्तन नहीं हो सकता हैं ? क्योंकि दूसरे दिन जब वे सब शिष्य निद्राधीन थे, तभी दरवा सुदी 5 के दिन तो नगर में इन्द्र महोत्सव होता है कालिकाचार्य ने किसी को भी कहे बिना वहां से विहार मौर वहां मुझे उपस्थित होना अनिवार्य हैं।
कर दिया। KI राजा की इस प्रार्थना को सुनकर आचार्य भगवंत
वे क्रमश: विहार करते हुए सुवर्णभूमि पधारे, जहां KE कुछ देर तक मौन रहे और फिर सोचकर बोले 'राजन् !
साधुओं की बस्ती में सागराचार्य अपने शिष्यों को वाचना ठ्ठ के दिन तो संवत्सरी की आराधना नहीं हो सकती है।
दे रहे थे। अभी चातुर्मास के प्रारंभ का दिन असाढ सुदी पूनम है,
सागराचार्य, कालिकाचार्य के प्रशिाही थे, किंतु पूनमसेपचासवें दिनसंवत्सरी महापर्व की आराधना करनी
अभी तक उनकी मुलाकात नहीं हो पाईथी अत:सागराचार्य नाहीये, ऐसी शास्त्रआज्ञा है। उस आज्ञा का उल्लंघन करने
अपने प्रगुरुदेवको पहिचाननहीं पाए...एक सामान्यसाधु वाला आराधक नहीं, किंतु विराधक कहलाता है।
समझकर कालिकाचार्य को उन्होंने बस्ती प्रदान कर