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जैनराजतरंगिणी
थी। रद्दी भी लेखकों से कागज या धन प्राप्त कर, छापने के आदी थे। वही पुस्तक प्रकाशित करना चाहते थे, जिसमें कहीं से, किसी प्रकार भी अधिक से अधिक लाभ की आशा थी। इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। उनकी दृष्टि व्यवसायी । वे घर लुटाने नहीं बैठे थे। उनके और लेखकों की दृष्टिकोणों के जमीन-आसमान का अन्तर था।
सरकार की तरफ से लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक योजनायें बनी। योजना अखबारों में धूम-धाम से छपती थी। प्रचार का ढिढोरा पिटता। किन्तु उनकी सीमा कुछ प्रिय पात्र तक सीमित रह जाती थी। उनका दर्शन समाचारपत्रों में, सरकारी विज्ञप्तियों में, पुस्तकों के होते उद्घाटन समारोहों के छपने समाचारों में मिलता था। मेरे जैसे प्यासे लेखक, आकाश की ओर देखते, टक लगाये, प्यासे रह जाते थे। एक बूंद का सहस्त्रांश भी भूलकर मुख में नहीं पड़ सका।
भारत में अनेक हिन्दी समितियाँ हैं। अनेक प्रकाशन संस्थायें सरकारी एवं अर्ध सरकारी है । मैंने पत्र लिखा । एकाध ने असमर्थता प्रकट की। शेष ने पत्रों को रद्दी की टोकरी में सुला दिया। काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने चार फार्म सन् १९६८ ई० में छापे, उसके पश्चात् टका-सा जबाब दे दिया।
किन्तु मनुष्य एवं शासन ही सब कुछ नहीं है। एक अव्यक्त शक्ति और है । अनजाने कार्य करती है। योजना स्वयं बनाती है। स्वयं प्रेरणा देती है। कार्य करवाती है। निःसन्देह उसी अव्यक्त शक्ति की योजना से पुस्तकें प्रकाशित हो सकी हैं। दूसरा संस्करण भी होने लगा है।
लेकिन जिन्हें लिखा था, उनकी निद्रा भंग न हुई। उनके फाइलों में पत्र उत्तर की प्रतीक्षा में पड़े-पड़े, निराशाग्नि में या तो जल गये, अथवा आँसू बहाते अपने ही आँसू में गल गये। हाँ-संस्थाओं तथा व्यक्तियों की तरफ से, मुफ्त प्रति भेजने के लिए पत्र यथा-क्रम अवश्य मिलते थे। उसमें भी डाक खर्च मुझे ही बहन करने की बात होती थी। सबका उत्तर देना मेरी सामर्थ्य के बाहर की बात थी।
संस्कृत एवं काशी विश्वविद्यालय : लिखने-पढ़ने का सर्वोत्तम साधन काशी है। संस्कृत तथा काशी विश्वविद्यालय के पुस्तक भण्डार पूर्ण हैं । व्यक्तिगत तथा कई संस्थाओं एवं विद्यालयों के पुस्तकालय भी हैं। पुस्तके कोई भी प्राप्तकर, बैठकर पढ़ सकता है। इस सुविधा से मेरा काम बहुत हलका हो गया। निश्चित समय पहुंचने और लौटने के कारण जीवन संयमित हो गया। कुछ पुस्तकालयों के पुस्तकाध्यक्षों ने मेरे काम में रुचि लेकर, प्राप्य सामग्रियों की सूचना तथा उन्हें सुलभ कर, वास्तव में सरस्वती के सच्चे, उपासक रूप में अपने को प्रकट किया है। संस्कृत विश्वविद्यालय के पुस्तकाध्यक्ष श्री डॉ० लक्ष्मीनारायण तिवारी तथा काशी विश्वविद्यालय के सर्वश्री हरदेव शर्मा तथा उपपुस्तकाध्यक्ष श्री एम० एन० राघव हैं। उन लोगों ने खोज-खोजकर, कश्मीर सम्बन्धी ग्रन्थों को मुझे देने का प्रयास किया है । इस सीमा तक सहायता किये हैं कि स्वयं पुस्तक निकालकर, देते थे । उनसे कमी उऋण नहीं हो सकता।
दुनिया में अर्थ एवं पद ही महत्त्व नहीं रखते। इसका अनुभव मैंने किया। जिनपर मुझे कभी अहसान नहीं किया, जिनका उपकार नहीं किया, जो अपरिचित थे, उनसे सबसे अधिक सहयोग एवं सहायता मिली है। वे सभी साधारण व्यक्ति थे। अपनी ६७ वर्ष की अवस्था में बिना किसी पारिश्रमिक, घर से पैसा खर्चकर, पढ़ना और लिखना, उनके सरल हृदय को अपील करता था, वह हर तरह की सहायता के लिए, सर्वदा तत्पर रहते थे। यह भावना मैंने पुस्तकालयों के निम्नवर्गीय कर्मचारियों में