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नेवाजीकी सृष्टि होती है और नैतिक ढोंग-जो कि सब तरहके ढोंगासे अधम हे-मुबुद्धिकी स्वाभाविकता और सुकुमारताको नष्ट कर देता है।
ब्रह्मचर्यपालनके द्वारा धर्मके सम्बन्धमें सुरुचिको स्वाभाविक कर दिया जाता है । कोरा उपदेश नहीं दिया जाता, शक्ति दी जाती है । नीतिकी बातें बाहरी आभूपणोंकी तरह जीरनके ऊपर स्टका दी जाती है उनका भीतर प्रवेश नहीं होता; परन्तु नामचर्यपाउन ऐसा नहीं है । इससे जीवन ही धर्मके साथ गढ दिया जाता है और इस तरह धर्मको विरुद्ध पक्षमें खड़ा न करके वह अन्तरगमें मिला दिया जाता है-तन्मय कर दिया जाता है। अतएव जीवनके आरम्गमें मनको और चरित्रको गढनेके समय नीतिके उपदेशोंकी जलरत नहीं; किन्तु अनुकूल अवस्था और अनुकूल नियमोंकी ही सबसे आधिक. आवश्यकता है।
केवल ब्रह्मचर्यपालन ही नहीं, इस अवस्थामें विश्वप्रकृतिकी अनुकूलता भी होनी चाहिए । शहर हमारे स्वाभाविक निवासस्थान नहीं हैं-मनुष्यके कामकाजोंकी जरूरतसे और मतलबसे ये बन गये है। विधाताकी यह इच्छा नहीं थी कि हम जन्म लेकर ईंट-काठ-पत्य रॉकी गोदमें पलकर मनुष्य बनें। हमारे आफिसोके और शहरोंके साथ फल फूल-पत्र-चन्द्र-सूर्यका कोई सम्बन्ध नहीं। ये शहर हमें सजीव सरस विश्वप्रकृतिकी छातीसे छीनकर अपने उत्तप्त उदमें डालकर पका डालते है । पर जिन लोगोंको इनमें रहनेका अभ्यास हो गया है और जो कामकाजके नशेमें विह्वल रहते है, वे इस शहरनिवासमें कष्टका अनुभव नहीं करते-वे धीरे धीरे स्वभावसे भ्रष्ट होकर विशाल जगतसे बरावर जुदा होते जाते हैं।