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१८७ जैनसमाजको किसी प्रकारकी हानि पहुँचनेकी संभावना नहीं। और नाटकसमयसारकी रचना तो उन्होने उक्त अवस्थासे उत्तीर्ण हो जानेके बाद सवत् १६९३ मे की है। इससे उसके विषयमे किसी प्रकारकी शंका ही नहीं हो सकती।
युक्तिप्रबोधकी रचना किस समय हुई, यह हमें अभीतक मालूम नहीं है। यदि उपाध्याय मेघविजयजीने उसे सत्यकी भित्तिपर बनाया है तो वह संवत् १६९२ के पहले पहलेका बना हुआ होना चाहिए। परन्तु जैनशासनके कथनानुसार यदि उसमें वनारसीदासजीकी मृत्युका और कॅवरपालजीके द्वारा उनकी परम्परा चलनेका भी जिकर है तो कहना होगा कि या तो स्वयं उपाध्यायजीने किसी द्वेषके वश, उनके निर्दोष सत्यमार्गानुयायी हो जानेपर भी, उनपर दोपारोप किया है और यह सभव भी है क्योंकि बनारसीदासजी अन्तमें दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी हो गये थे और उपाध्यायजी स्वयं खेताम्बर थे, या युक्तिप्रबोध वना तो होगा उसी १६८० से १६९२ तकके वीचमे, जब बनारसीदासजी एकान्तनिश्चयावलम्बी थे परन्तु पीछे अनावश्यक हो जाने पर भी उसको आवश्यक बनाये रखनेके खयालसे उन्होंने स्वय या उनके किसी शिष्यने उक्त परम्परा चलनेकी बात लिख दी होगी। इस वातका निर्णय युक्तिप्रवोधके देखनेसे हो सकता है। कुछ भी हो, पर बनारसीदासजीकी रचना और उनकी आत्मकहानी ( जीवनचरित) इस वातको अच्छी तरह स्पष्ट कर देती है कि वे किसी नये मतके प्रवर्तक, निन्हव या पाखण्डी नहीं थे। आशा है कि जैनशासनके सम्पादक महाशय इस लेखपर विचार करेंगे और एक महात्मापर उन्होने जो आक्षेप किये है उनको दूर करनेकी उदारता दिखलावेगे।