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छोटा वाहन कहते हैं। जैनधर्मके भी दो बड़े टुकड़े होगये यथा *श्वेताम्बर' सफेद वस्त्र धारण करनेवाले और 'दिगम्बर' जिनका वस्त्र आकाश है।
जैनसाधु, जो सर्व प्रकारके 'बन्धनों से मुक्त होनेके अभिप्रायसे दीक्षित होता है, अपने लिये सर्व प्रकारके विषयसुखोंको अस्वीकार करता हुआ, सिर्फ इतना भोजन जो जीवन धारण करनेके लिये काफी हो, जिसे किसी व्यक्तिने खास उसके लिए न बनाया हो और जो धार्मिक भक्तिके साथ श्रावकों या गृहस्थोद्वारा दिया जाय, ग्रहण करता हुआ और लौकिक जन तथा स्त्री संसर्गसे अलग रहकर एक प्रशंसनीय जीवन व्यतीत करनेके द्वारा पूर्ण रीतिसे व्रत, नियम और इन्द्रियसंयमका पालन करता हुआ, जगतके सन्मुख आत्मसंयमका एक बड़ा ही उत्तम आदर्श प्रस्तुत करता है।
यद्यपि इन दोनों धोंने ब्राह्मणोंके जातिभेद या अन्य विधि विधानोंके साथ कोई बड़ी भारी लड़ाई नहीं लडी, तथापि इनका उद्देश ऐसे आदर्श पुरुष उत्पन्न करना था जो, बौद्धशास्त्रोंमे ' भिक्षु'
और जैन शास्त्रोंमें 'यति' या 'साधु' कहलाते हैं। यह आदर्श पुरुष समस्त ही श्रेष्ठ और उत्तम गुणोंकी मूर्तिरूपसे देखा जासकता है। क्योंकि उसका शरीर उसके वंशमें है, वचनपर उसने अधिकार जमा लिया है और मनको भले प्रकार अपने आधीन कर लिया है। वह जगतको जीतनेवाला है क्योंक उसने अपने आपको जीत लिया है। वह अपना सारा दिन अध्ययन और शिक्षणमें, सांसारिक विषयवासनाओंके समुद्रमें गोते खाते और बहते हुए मनुष्योंको सुखशांतिकी दृढ़ भूमिपर लानेके द्वारा उनका उद्धार करनेमें और भटकते हुए संसारी मुसाफिरोंको मोक्षका मार्ग दिखलानेमें व्यतीत करता है। यों तो ऐसे
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