Book Title: Jain Hiteshi
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 323
________________ जीवमात्रपर दया करनेकी भावना दृढ होने लगी। उसका हृदय पूर्व कोंके पश्चात्तापसे दिनपर दिन पवित्र और उज्ज्वल होने लगा। पाण्डको अपनी निर्धनताका जरा भी दुःख नहीं होता । यदि उसे कोई बड़ा भारी दुःख है तो वह यही कि अब वह लोगोकी भलाई करनेमें और श्रमणोंको बुलाकर उनके द्वारा धर्मप्रचार करने में असमर्थ हो गया है। • कोशाम्बी नगरीके पासके उसी जगलमें जहाँ पाण्डु लूटा गया था एक बौद्ध साधु जा रहा है। वह अपने विचारोंमें मस्त है। उसके पास एक कमण्डलु और एक गठरीके सिवा और कुछ नहीं है। गठरीमें बहुतसी हस्तलिखित पुस्तकें हैं । जिस कपड़े में वे पुस्तके बँधी है वह कीमती है। जान पड़ता है किसी श्रद्धालु उपासकने पुस्तक-विनयसे प्रेरित होकर उक्त कपड़ा दिया होगा। यह कीमती कपड़ा साधुके लिए विपत्तिका कारण बन गया। लुटेरोंने उसे दूरहीसे देखकर साधुपर आक्रमण किया। उन्होंने समझा था कि गठरीके भीतर कीमती चीजे होंगी परन्तु जब देखा कि वे उनके लिए सर्वथा निरुपयोगी पुस्तकें हैं, तब वे निराश होकर चल दिये। जाते समय अपने स्वभावके अनुसार साधुको नीचे डालकर एक एक दो दो लातें मारे बिना उनसे नरहा गया। , साधु मारकी वेदनाके मारे रातभर वहीं पड़ा रहा । दूसरे दिन सबेरे उठकर जब वह अपनी राह चलने लगा, तब उसे पासहीकी झाडीमेंसे हथियारोकी झनझनाहट और मनुष्योंकी चीख चिल्लाहट सुनाई दी। उसने साहस करके झाडीके समीप जाकर देखा तो मालूम हुआ कि चेही लुटेरे जिन्होने उसकी दुर्दशा की थी अपने ही दलके एक लुटेरेपर आक्रमण कर रहे हैं।, यह लुटेरा डीलडौलमें इन सबसे बलवान् और

Loading...

Page Navigation
1 ... 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373