Book Title: Jain Hiteshi
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 321
________________ २८९ मिला है कि मैं उसे देखकर आश्चर्यमें डूब रहा हूँ। महात्मन्, मैं आपके उपकारके बोझसे दब गया हूँ। यदि मुझे वह मुहरोंकी बसनी न मिलती, तो न तो मैं यहाँ कुछ व्यापार ही कर सकता और न उस व्यापारसे जो मुझे बड़ा भारी लाभ हुआ है वह होता । आप दूरदर्शी भी कितने बड़े है। यदि आप उस किसानकी सहायता न करते और उसे इतनी जल्दी यहाँ पहुँचनेमें समर्थ न कर देते तो मेरे मित्र मलिककी भी इज्जत न बचती। आपने उसे भी दुःखकूपसे गिरते हुए बचाया और मेरे नौकरकी भी रक्षा की। महाराज, जिस तरह आप 'सत्य' को देखते हैं, उसी तरह यदि सारे मनुष्य देखने लगें तो जगत् कितना सुखी हो जाय ! अगणित पापके मार्ग बन्द हो जाये और पुण्यके मार्ग खुल जाय। मैने निश्चय किया है कि मैं बुद्ध भगवानके इस दयामय धर्मका प्रचार करनेके लिए अपनी कोशाम्बी नगरीमें एक विहार बनवाऊँ और उसमें आप तथा और दूसरे श्रमण महात्मा आकर लोगोंको सन्मार्ग सुझावें। कोशाम्बीमे पाण्डु जौहरीका विहार' बन चुका है। उसमें सैकड़ो विद्वान् और दयामूर्ति श्रमण रहते है। थोड़े ही समयमें वह एक सुप्रसिद्ध विहार गिना जाने लगा है। दूर दूरके धर्म-पिपासु लोग वहाँ उपदेश सुननेके लिए आया करते है। पाण्डु जौहरी भी अब एक सुप्रसिद्ध जौहरी हो गया है। उसकी यशोगाथायें दूर दूर तक सुन पड़ती हैं। कोशाम्बीके समीप ही एक राजाकी राजधानी थी। राजाने अपने खजांचीको आज्ञा दी कि पाण्डु जौहरीकी मार्फत एक अच्छा सोनेका मुकुट बनवाया जावे और उसमें बहुमूल्यसे बहुमूल्य रत्न जड़वाये जावें।

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