Book Title: Jain Hiteshi
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 332
________________ ३०० सकता है, हमे स्वय ही पवित्र होनेका प्रयत्न करना चाहिए । बुद्ध भगवानका भी यही उपदेश है । " हमारे कर्म ब्रह्मा विष्णु ईश्वर अथवा और किसी देवके बनाये हुए नहीं हैं । वे सब हमारे ही किये हुए कामोंके परिपाक हैं । माताके गर्भके समान हम अपने ही कर्मरूपी गर्भस्थानमें अवतार लेते है और वे कर्म ही हमें सब ओरोंसे लपेट लेते हैं । हमारे इन कर्मोंमेंसे बुरे कर्म तो हमारे लिए शाप तुल्य होते हैं और भले कर्म आशीर्वाद तुल्य होते है । इस तरह हमारे कर्मोंके भीतर ही मोक्षप्राप्तिका बीज छुपा हुआ है । " पाण्डु अपना सब धन कोशाम्बी ले गया और उसका बड़ी सावधानीसे सदुपयोग करने लगा। अपना कारोबार भी अब उसने खूब बढ़ाया और उससे जो आमदनी बढी उसे वह परोपकारके कामों में जी खोल करके खर्च करने लगा। एक दिन जब वह मरणाय्या पर पड़ा था, तब उसने अपने घरके -सव पुत्रपुत्रियों और पोते पोतियोंको अपने पास बुलाकर कहा: मेरे प्यारे बालको, कभी किसी कामको निराश होकर नहीं छोड़ देना । यदि किसी काममें सफलता प्राप्त न हो तो उसका दोष किसी औरके सिर न डालना । अपनी असफलता और दुःखोंके कारणोंका पता अपने ही कर्मोंमें लगाना चाहिए और उनके दूर करनेका यत्न करना चाहिए । यदि तुम अभिमान या अहंकारका परदा हटा दोगे तो उन कारणों का पता बहुत जल्दी लगा सकोगे और उनका पता लग जायगा तब उनमें से निकलनेका मार्ग भी तुम्हे बहुत जल्दी सूझ जायगा । दुःखके उपाय भी अपने ही हाथ में हैं। तुम्हारी आँखके आगे मायाका परदा न आजाय, इसका हमेशा ख़याल रखना और मेरे

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