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मदेवसूरिके उक्त वाक्योंसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है। कि हमें कैसे उपयोगी कार्यक्षम और सच्चे विद्वानोंकी जरूरत है। वे केवल न्याय व्याकरणादि रटे हुए पण्डितोंको किसी कामका नहीं बतलाते हैं। लोकव्यवहारज्ञता और दुनियाकी स्थितियोंके ज्ञानपर उन्होंने बहुत ही अधिक जोर दिया है। अत एव न्याय-व्याकरण-काव्य-धर्मशास्त्रके साथ साथ आवश्यक है कि विद्यार्थियोंको गणित, भूगोल, इतिहास, पदार्थविज्ञान आदि व्यवहारोपयोगी विषय भी हिन्दीमे सिखलाये जावें और वर्तमान सामाजिक धार्मिक राजनीतिक और वैज्ञानिक स्थितियोंका भी ज्ञान कराया जाय। इसके बिना पण्डित भले ही तैयार हो जावे, पर सच्चे विद्वान् न हो सकेंगे।
४. जीविकोपयोगी शिक्षा देनेके विषयमें तो कुछ आधिक कहनेकी जरूरत ही नहीं है। इसके लिए पहले कई बार लिखा जा चुका है। सब ही जानते है कि 'सर्वारम्भास्तण्डुलाप्रस्थमूलाः"
५. संभव है कि बहुतसे लोग यह कह उठे कि इतने अधिक विषय एक साथ कैसे पढाये जा सकते है ? जैनसमाजके एक प्रसिद्ध पण्डितजीका तो यह सिद्धान्त है कि अधिक विषयोंकी शिक्षा देनसे विद्यार्थी विद्वान् बन ही नहीं सकते और इसलिए वे अपनी पाठशालाके विद्यार्थियोंको सूखा न्याय और व्याकरण रटातें हैं कहनेके लिए थोड़ा बहुत धर्मशास्त्र भी साथ लगा रक्खा है। परन्तु इस प्रकारके विचार उन्हीं लोगोंके हैं जो वर्तमान शिक्षाप्रणालीसे सर्वथा अपरचित हैं-शिक्षाकी परिभाषा भी जो नहीं जानते और किसी तरहसे ग्रन्थ कण्ठ कर लेनेको ही विद्वत्ता समझते हैं । वास्तवमें विचार किया जाय तो किसी एक विषयको पढ़कर कोई किसी विषयका भी अच्छा मर्मज्ञ नहीं हो सकता है। एक विषयका मर्म समझनेके लिए उसके सहकारी