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इसमें सब ही सहमत हैं कि जैनसंस्थाओंमे जैनधर्मके ही ग्रन्थ पढाये जाना चाहिए । विवाद है व्याकरण, न्याय, साहित्यके ग्रन्थोंको लेकर। कुछ सजन यह कहते हैं कि इन तीनोकी शिक्षा केवळ जैन विद्वानोंके बनाये हुए ग्रन्थोंसे दी जाय और कुछ लोगोंका खयाल है कि जैनेतर विद्वानोंके ग्रन्थ पढाये जावें । इस पिछले ख्यालके जो लोग हैं वे प्रतिवर्ष सरकारी यूनीवर्सिटियोंकी संस्कृत परीक्षायें दिया करते हैं। पर हमारी समझमें इन दोनोके बीचका मार्ग अच्छा है। सबसे पहले हमें इस बातपर ध्यान देना चाहिए कि हमारे विद्यार्थी इन विपयोंमें अच्छे व्युत्पन्न हो जावें-अजैन विद्यालयोंके पढनेचालोंकी अपेक्षा उनका 'ज्ञान कम न रह जाय और इसके बाद यह विचार करना चाहिए कि हमारे जैन विद्वानोंके ग्रन्थोंकी अवज्ञा न हो'उनकी प्रसिद्धिके मार्ग में रुकावट न हो । केवल इसी खयालसे कि यह
जैन विद्वान्का बनाया हुआ है कोई अन्य पठनक्रममें भरती कर लिया जाय और उससे विद्यार्थियोको वास्तविक बोध न हो तो यह ठीक नहीं। इसी तरह अमुक ग्रन्थ अमुक यूनीवर्सिटीमें पढाया जाता है, इस लिए हम भी पढ़ावें इस खयालसे कोई जैनेतर अन्य भरती कर लिया जाय और उससे अच्छा बोध न हो तथा उसी विषयका उससे अच्छा जैनमन्थ पड़ा रहे, तो यह भी ठीक नहीं है। अन्योंकी योग्यता, उपयोगिता आदिपर सबसे अधिक दृष्टि रखनी चाहिए, उनके रचयिताओंके विषयमें कम | व्याकरण और साहित्यका धर्मसे कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है । प्रत्येक व्याकरण 'पुरुषः पुरुषौ पुरुषा' ही सिद्ध करेगा, चाहे वह जैनाचार्यका बनाया हुआ हो और चाहे वैदिक बौद्ध या ईसाई विद्वान्का । देखना यह चाहिए कि सुगम और अल्पपरिश्रमसाध्य कौन है? यदि शाकटायन या जैनेन्द्र सम्पूर्ण और मुगम