Book Title: Jain Hiteshi
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 337
________________ ३०५ "प्रथ वनाया है। इसके पढ़नेसे बहुत जल्दी और बहुत थोडे परिश्रमसे , संस्कृतका ज्ञान हो जाता है। यही अथवा इसी ढंगकी दूसरी पुस्तकोंके पढ़ानेका विद्यालयमे प्रबन्ध होना चाहिए। , जहाँ तक हम जानते है इस विद्यालयमें संस्कृतके विद्यार्थियोंको व्यवहारोपयोगी अगरेजी शिक्षा देनेका तो प्रबन्ध किया ही जायगा और उसकी जरूरत भी है; पर साथ ही हमारी प्रार्थना गरीब हिन्दीके लिए भी है। इसकी ओर भी दयादृष्टि होनी चाहिए। हमारी समझमें इसके बिना न तो संस्कृतके विद्वान् देश, धर्म या समाजका कल्याण कर सकते हैं और न अँगरेजीके विद्वानोसे ही हमें कुछ लाम होता है। पर न इसकी गुजर अँगरेजी स्कूलों और कॉलेजोमें है और न संस्कृतके विद्यालयोंमें ! अगरेजीके विद्यालयोंमे तो वह इस कारण नहीं फटकने पाती कि उनका अधिकार विदेशी या विदेशी मावापन अफसरोंके हाथमे है, परन्तु सस्कृतके विद्यालय हमारे हाथमें है तो भी आश्चर्य है कि उनके दरवाजे इसके लिए बन्द हैं ? यह बड़े ही दुःखका विषय है। जैनियोंकी संस्कृत पाठशालाओंने इस समय तक जितने संस्कृतज्ञ तैयार किये हैं उनमेंसे एक दोको छोडकर कोई भी इस योग्य नहीं कि अपने विचारोंको लेखों प्रथों या व्याख्यानोंके द्वारा अच्छी हिन्दीमें प्रकाशित कर सके। जो कुछ वे पढ़े है वह एक तरहसे उनके लिए 'गूंगेका गुड़' है। संस्कृत साहित्यमें क्या महत्त्व है वे उसे दूसरोंके सम्मुख प्रकाशित नहीं करसकते और यदि करने का प्रयत्न भी करते हैं तो उनकी संस्कृतबहुल विलक्षण पण्डिताऊ' भाषाको सर्व साधारण समझ नहीं सकते। तब बतलाइए, ऐसे पण्डितोंको तैयार करके जैनसमाज क्या लाभ उठायगा? इस बडी भारी त्रुटिको पूर्ण करनेका इस विद्यालयमें 'खास' प्रयत्न होना चाहिए । प्रत्येक

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