Book Title: Jain Hiteshi
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 325
________________ इस अन्तकी घड़ीमें अपना सुधार कर ले । इस कमण्डलुमेंसे थोड़ासा पानी पी ले और मुझे इन घावोका इलाज करने दे। शायद मै तेरे इस जीवनदीपकको वुझनेसे बचा सकूँ। . लुटेरेकी शक्ति क्षीण हो गई थी। उसने शक्ति भर प्रयत्न करके कहा-मैंने कल एक साधुको अपने साथियों सहित बहुत बुरी तरह मारा था। क्या तुम वही हो ? और क्या तुम मेरे उस अन्यायका बदला इस समय मेरी सहायता करनेके रूपमें दोगे? यह जल तुम क्यों लाये हो ? पर अब तुम्हारा यह सब प्रयत्न व्यर्थ है। मेरे भाई, इस जलसे मेरी प्यास तो शायद मिट जायगी परन्तु मेरे जीवनकी अब आशा नहीं। उन कुत्तोंने मुझे इतना घायल कर दिया है कि मै निश्चयसे मर जाऊँगा। अरे कृतन्नियो, मेरे सिखलाये हुए दाव पेच आज तुमने मेरे पर ही आजमाये ! ___ श्रमण-"जैसा बोता है वैसा ही लुनता है ।" यह अक्षर अक्षर सत्य है। तूने अपने साथियोंको लूट मार सिखलाई थी, इसलिए आज 'उसी लट मारकी विद्याको उन्होंने तुझपर आजमायी। यदि तूने उन्हें दया सिखलाई होती तो आज वे भी तुझपर दया करते। ऊपरको फेकी हुई गेंद जिस तरह लौटकर फैंकनेवाले पर ही आती है उसी तरह दूसरोंके लिए किये हुए बुरे भले कर्म, करनेवालेके ही ऊपर आ पड़ते हैं। लुटेरा-इसमें जरा भी असत्य नहीं। मुझे आपकी प्रत्येक बात ठीक मालम होती है। मेरी जो दुर्गति हुई वह उचित ही हुई। परन्तु महाराज मेरे दुःखोंका अन्त अभी कहाँ आ सकता है ? मैंने अगणित अन्याय और अत्याचार किये है। उन सबका फल मुझे आगे पीछे कभी न कभी अवश्य भोगना पड़ेगा। आप कृपा करके मुझे कोई ऐसा

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