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करनेका समाचार मिला और आशा अपने दोनों हाथोंसे आश्वासन देती हुई दिखलाई दी। किसी भी समाजकी उन्नति के लिए दो वातोंकी सबसे अधिक अवश्यकता है.--एक तो द्रव्यकी और दूसरे कार्य करनेवाले स्वार्थत्यागी मनुष्योंकी। यद्यपि हमें अपने अभीष्टकी प्राप्तिके लिए सेठ हुकमचन्दजी जैसे सैकड़ों धनिकोंकी और वावू सूरजभानजी तथा जुगलकिशोरजी जैसे सैकडों हजारों स्वार्थत्यागियोंकी जरूरत होगी-दो चार धनिकों और त्यागियोंसे हमारा काम नहीं चल सकेगा, तो भी इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हम सफलताके मार्गपर जा रहे है, द्रव्यदाता और जीवनदाता दोनोंने ही हमें एक साथ दर्शन दिये है और हमारे हृदयमें एक नवीन ही उत्साह और बलका सचार कर दिया है। हमारा दृढ विश्वास होगया है कि अब जैनसमाज उठेगा, वलवान होगा, उद्योगशील होगा और एक दिन सारे उन्नत समाजोंके मार्गका सहचर होगा। इन उदाहरणोंसे हमें जानना चाहिए कि हमारे प्रगति और उन्नतिसम्बन्धी कोई भी आन्दोलन व्यर्थ न जावेंगे-उनका अवश्य ही प्रभाव पडेगा। भले ही सफलता जल्दी न हो, पर होगी अवश्य। हमें निराश न होना चाहिए और कष्टसाध्यसे कष्टसाध्य विषयका भी आन्दोलन करनेसे न चूकना चाहिए। यह आन्दोलनका ही प्रसाद है जो आज केवल प्रतिष्ठाओमें ही अपने धनको अंधाधुध खर्च करनेवाली जातिमें विद्यासंस्थाओंके लिए भी लाखों रुपया देनेवाले उदार पुरुष दिखलाई देने लगे हैं और जीवनभर रुपया ढालनेकी मशीन बने रहनेवाले लोगोंमें भी जाति और धर्मसेवाके लिए जीवन उत्सर्ग करनेवालोंके दर्शन होने लगे हैं।
८. महाराष्ट्र जैनसभाके वार्षिकोत्सवमें धींगाधींगी।
महासभाके जल्सोमें और इस ओरकी प्रान्तिकसभाओके जल्सोंमें. कई बार धींगाधींगीकी नौबत आ चुकी है; परन्तु दक्षिण प्रान्तकी सभायें इससे साफ बची हुई थीं। इससे हम सोचते थे कि दक्षिणके जैनी भाई बहुत ही शान्त और विचारशील है; चुपचाप अपना काम किये जा रहे है। किन्तु अभी ता० १०-११-१२ अप्रैलको दक्षिणमहाराष्ट्र जैनसभाका जो अधिवेशन हुआ उसकी रिपोर्टसे मालूम हुआ कि दक्षिणी भाई हम सबका भी नम्बर ले गये। कुछ महात्माओने