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ही तैयार होते हैं और न अच्छे विचारोका विस्तार तथा ज्ञानकी अभिरुचि बढती है। वर्तमान समयमें समाचारपत्र और मासिकपत्र उन्नतिके सबसे बड़े साधन है। इस बातको सब ही स्वीकार करते है। इस लिए इनकी दशा सुधारना मानो अपनी ही दशा सुधारना है। हमारी कुछ परिस्थितियों ऐसी हैं कि यदि हम इस बातको समयपर छोड़ दें-यह सोच लें कि धीरे धीरे ग्राहकसंख्या बढ़ेगी और उससे पत्रोकी दशा अच्छी हो जायगी, तो ठीक न होगा । ग्राहकसंख्या योड़ी बहुत अवश्य बढ़ती रहेगी, परन्तु वह इतनी नहीं बढ़ सकती जितनी कि दूसरोंके पत्रोंकी बढ़ सकती है। क्योंकि एक तो हमारी सख्या बहुत ही थोड़ी है और फिर उसमें भी कई सम्प्रदाय कई पंथ
और कई भाषायें हैं। ऐसी अवस्थामें जबतक कोई खास प्रयत्न न किया जाय, तबतक हमारे पत्रोकी दशा अच्छी नहीं हो सकती। या तो धनिक इन पत्रोंको इतनी सहायता दे देवें जिससे केवल प्राहकोंके भरोसेपर इन्हें न रहना पड़े या धनिकोंकी सस्थाओंके ओरसे ही दो चार अच्छे पत्र निकाले जावे जिन्हें धनकी विशेष चिन्ता न रहे। यदि धनिकोका लक्ष्य इस ओर न हो अथवा उनकी अधीनतामें विचारस्वाधीनताके नष्ट होनेकी संभावना हो, तो शिक्षित और मध्यम श्रेणीके लोगोंको ही इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे लोग यदि प्रतिवर्ष न्टो दो चार चार रुपया ही पत्रोंकी सहायताके लिए दे दिया करें अथवा दश दश पाँच पाँच ग्राहक ही बना दिया करें तो पत्रोकी स्थिति बहुत कुछ मुधर सकती है । इसके सिवा यदि सम्पादक लोक साम्प्रदायिक अगडोंमें विशेषतासे न पड़े और लोगोंमे विचारसहिष्णुता बढ़ाई जाचे, तो भी ग्राहकसंख्या बढ़ सकती है । क्योंकि ऐसा होनेसे प्रत्येक जैनपत्रको तीनों सम्प्रदायके लोग पढ़ सकेंगे।
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