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२७८ " कर भला होगा भला।"
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आज हम अपने पाठकोंको उस समयकी एक आख्यायिका सुनावेंगे जब भारतवर्ष उन्नतिके शिखरपर चढा हुआ स्वर्गीय सुखोंका अनुभव करता था; वह सब प्रकारसे स्वाधीन, सुखी, सदाचारी और शान्त था, धनी मानी उद्योगी और ज्ञानी था और इसके साथ ही दुसरे देशोंको क्षमा, दया, परोपकार आदि सद्गणोंकी शिक्षा देता था। उस समय यहाके व्यापारी दूरदूरके देशों और द्वीपोंमें जाया करते थे और हजारों विदेशी व्यापारी भारतके मुख्य मुख्य शहरोंमें दिखलाई देते थे। आजकालके कलकत्ता और बम्बई जैसे समृद्धशाली नगर भी उस समय अनेक थे और विपुल व्यापार होनेके कारण उनमे खूब चहलपहल रहती थी। छोटे नगरो, कसबों और गॉवोंकी अवस्था बहुत ही अच्छी थी। प्रजाका जीवन बहुत ही सुखशान्तिसे व्यतीत होता था।
बौद्धधर्मका वह मध्याह्नकाल था। जहाँ तहाँ बुद्धदेवकी शिक्षाका पवित्र, शान्त और दयामय संगीत सुन पड़ता था। बड़े बड़े राजा महाराजा और धनी बौद्धधर्मके प्रचारमें दत्तचित्त थे । हजारों बौद्ध श्रमण जहाँ तहाँ विहार करते हुए दिखलाई देते थे।
बनारसकी ओर जानेवाले सडक पर एक घोडा गाड़ी जा रही है। घोड़ा बहुत तेजीसे जा रहा है। गाड़ीपर सिर्फ दो आदमी है। एक गाडीका स्वामी और दूसरा नौकर । स्वामीके वेशभूषासे मालूम होता है कि वह कोई धनिक व्यापारी है। उसकी मुखचेष्टा बतली रही है कि उसे नियत स्थान पर जल्दी पहुंचना है।