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Old Testament और बौद्धोंके 'त्रिपटिक' की यही हालत है। जनसाहित्य प्रारंभमें केवल धार्मिक प्रकृतिको लिए हुए था; परन्तु समयके हेरफेरसे उसने न सिर्फ धार्मिक विभागमें किन्तु दूसरे विभागोंमें भी आश्चर्यजनक उन्नति प्राप्त की। न्याय और अध्यात्मविद्याके विभागोंमें इस साहित्यने बड़े ही ऊँचे विकास और क्रमको धारण किया। सन् ईसवीकी पहली शताब्दीमें प्रसिद्ध होनेवाले उमास्वामि-- के जोड़के अध्यात्मविद्याविशारद, या छठी शताब्दीके सिद्धसेन दिवाकर और आठवीं शताब्दीके अकलंकदेवकी बरावरके नैय्यायिक इस भारत भूमिपर अधिक नहीं हुए हैं। सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतार नामक ग्रंथमें कुल न्यायविद्या केवल ३२ श्लोकोंके भीतर भरी हुई है। न्यायदर्शन जिसे ब्राह्मण ऋषि गौतमने चलाया है, न्याय अध्यात्मविद्याके रूपमें असंभव होजाता यदि जैनी और बौद्ध अनुमान चौथी शताब्दीसे न्यायका यथार्थ और सत्याकृतिमें अध्ययन न करते। जिस समय मै जैनियोंके न्यायावतार', 'परीक्षामुख', न्यायदीपिका', आदि कुछ न्यायग्रंथोंका सम्पादन और अनुवाद कर रहा था उस समय जैनियोंकी विचारपद्धतिकी यथार्थता, सूक्ष्मता, सुनिश्चितता और सक्षितताको देखकर मुझे आश्चर्य हुआ था और मैंने धन्यवादके साथ इस बातको नोट किया है कि किस प्रकारसे प्राचीन न्यायपद्धतिने जैन नैय्यायिकों द्वारा क्रमशः उन्नतिलाम कर वर्तमानरूप धारण किया है। इन जैन नैय्यायिकोंमेंसे बहुतोंने न्यायपर टीका ग्रंथोंकी भी रचना की है, और मध्यमयुगमें न्यायपद्धतिपर यह एक बडा ही बहुमूल्य काम हुआ है। जो मध्यमकालीन न्यायदर्शन' के नामसे प्रसिद्ध है वह सब केवल जैन और बौद्ध नैय्यायिकोका कर्तव्य है । और ब्राह्मणोंके न्यायकी आधुनिक. पद्धति जिसे "नव्य न्याय" कहते है और जिसे गणेश उपाध्यायने ईस