________________
२२०
तवर्ष पाचात्य सभ्यताकी नकल करके अपने आदर्शने गिरता जाता है। उसका सहज सादा और सुखद जीवन, विलास वैभव और बाहरी आडम्बरोंसे दुलह, पकिल और क्लेशमय बनता जाता है। ऐसे समयमें इस प्रकारके उपदेशोंकी बहुत बड़ी जरूरत है। प्रकाशक महाशय हिन्दी साहित्यके एक बहुत आवश्यक भागकी पूर्ति करनेके लिए . उद्यत हुए है। हमे उनका उपकार मानना चाहिए और ग्रन्थमालाके ग्राहक बनकर उनके उत्साहको बढ़ाना चाहिए । ग्रन्थमालामें आगे स्वर्गका खजाना, स्वर्गकी कुजी, स्वर्गका विमान, आदि और इसी तरहकी कई पुस्तकें निकलनेवाली है। अपने जैन भाइयोमे हम खास तौरसे सिफारिश करते है कि वे इस मालाको मॅगाकर अवश्य ही पढ़ें।
४. शुश्रूषा-लेखक, पं० श्रीगिरिधरशर्मा, झालरापाटन । प्रकाशक, एस० पी० ब्रदर्स एण्ड कम्पनी, झालरापाटण | पृष्ठसख्या २८२ । मूल्य १) रु०। इन्दौर के सुप्रसिद्ध अनुभवी डाक्टर तॉवके मराठी अन्यका यह हिन्दी अनुवाद है । रोगियोंको आरोग्य करनेके लिए जितनी आवश्यकता अच्छे डाक्टरोंकी चिकित्साकी है उतनी ही बत्कि उससे भी अधिक आवश्यकता रोगीकी सेवा या शुश्रूपाकी है । शुश्रूषा किस तरह करना चाहिए इसका ज्ञान न होनेसे हजारो रोगी औषधोपचार करते हुए भी जीवन खो बैठते है। यदि औपधिका भी प्रबन्ध न हो और रोगीकी अच्छी शुश्रूषा होती रहे, तो इससे उसके प्राण बच सकते हैं। इससे शुश्रूपाका महत्त्व मालूम होता है । साधारण लोग भी शुश्रूपा सम्बन्धी बातोंको समझ जावें, इसके लिए यह पुस्तक लिखी गई है । रोगीकी सेवा करनका प्रसंग कभी न कभी सभी लोगोंपर आ जाता है, इसलिए