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२३६ उत्कष्ट विधि है, नाग्न्यादि कठिन परीषह है, कठिन तप आदि हैं, वे चर्तमानमे शास्त्रोक्त मार्गसे पालनेमें बहुत कठिनाई होती है और परिणामोंकी उच्चता पहले जैसी नहीं हो सकती है। परन्तु इससे यह न समझ लेना चाहिए कि आजकल साधु हो ही नहीं सकते । यदि नग्नमुद्रा धारण कर सकनेवाले नहीं हो.सकते, तोखण्डवस्त्र धारण करनेवाले -ग्यारह प्रतिमाधारी, उनसे भी कम नीचेकी प्रतिमाओंका धारण करनेवाले,गृहत्यागी, ब्रह्मचारी आदि ही सही। ये भी तो एक तरहके साधु है-इनसे भी तो हमारा बहुत कल्याण हो सकता है--इनमें भी तो उपर्युक्त पूज्य गुण हो सकते है । भले ही आप इन्हें निम्रन्थ गुरु मत मानो, पर उत्कष्ट श्रावक भी तो हमारे यहाँ पूज्य हैं । ये यदि हमें उपदेश दें-हमें मार्ग बतलावें, तो इन्हें भी तो गुरु कहनेमें कुछ हानि नहीं है। फिर केवल स्वागधारियोंको सिरपर चढानेकी क्या . जरूरत है ?
लेख बहुत बड़ा हो गया है, इसलिए अब मैं केवल इतना ही और कहकर इसे समाप्त करूँगा कि हमारे साधुमार्गकी जो दुर्दशा हुई है, उसके प्रधान कारण हम गृहस्थ लोग ही हैं। इस बातको हमें न भूलना चाहिए कि जिस तरह गृहस्थोंका सुधारना बिगाडना साधुओंके हाथ है उसी तरह साधुओंका सुधारना बिगाड़ना भी गृहस्थोंके हाथ है। दोनोंके जुदा जुदा अधिकार है । अपने अपने अधिकारोंको दोनोंको ही काममें लाना चाहिए । गृहस्थका यह अधिकार है कि वह पात्रदान करे, पात्रसेवा करे और पात्रभक्ति करे । यदि इसे हम काममें लाते रहते, तो आज हमारे साधु हमें इतने भारी न होते । अन्धश्रद्धाके वश -होकर हमने अपनी बुद्धिको ताकमें रख दी और इनके केवल बाहरी -वेषमें भूल कर इनके दोषोंकी उपेक्षा करके हमने जो अपात्रपूजाका