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२३१ साधु ऊर्फ भिखमंगोंकी गति नहीं है-इस श्रेणीके साधुओंका भार उनके सिरपर नहीं है। अभी तक जैनधर्मके 'साधु' नामकी बहुत कुछ प्रतिष्ठा बनी हुई है।
किन्तु जैनधर्मके साधुओंका जो अतिशय उच्च आदर्श है, उससे तो हमारे वर्तमान साधु भी कुछ कम पतित नहीं हुए हैं-इस खयालसे तो उन्हे औरोंसे भी अधिक गिरा हुआ कहना पड़ता है। जैनसिद्धान्तके अनुसार साधु, मुनि या यति वह कहला सकता है जिसने सांसारिक विषयवासनाओसे सर्वथा मुंह मोड़ लिया है, किसी भी प्रकारका परिग्रह जिसके पास नहीं है, संसारके कोलाहलसे ऊब कर जो निर्जन स्थानोंमें रहकर मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियोंको बढ़ाता है,संसारके लोगोंसे जिसका केवल इतना ही सम्बन्ध है कि उनके कल्याणकी वह इच्छा रखता है और अवसर मिलनेपर उन्हें धर्मामृतका पान कराता है; सारी इन्द्रियाँ जिसकी दासी हैं, धनमान प्रतिष्ठाको जो तुच्छ समझता है, बुराई करनेवालोंका भी जो कल्याण चाहता है, करुणा और क्षमाका जो अवतार है, किसी भी धर्म, मत या सम्प्रदायसे जिसे द्वेष नहीं, जो सत्यका परम उपासक है, हठ या आग्रह जिसके पास नहीं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी एकतासे जो मोक्ष मार्ग मानता है। दखिए, यह कितना ऊँचा आदर्श है और फिर अपने साधु महात्माओंकी ओर भी एक नजर डालिए कि वे इस आदर्शसे कितने नीचे गिरे हुए हैं।
पहले भट्टारकोंको ही लीजिए। उनके पास लाखोंकी दौलत है, • गाडी, घोडा, पालकी, नोकर, चाकर, आदि राजसी ठाटबाट हैं, जो भो
गोपभोगकी सामग्रियाँ गृहस्थोंको भी दुर्लभ हैं वे उनके सामने हर वक्त उपस्थित है । दयामया इतनी है कि श्रावकोंके द्वारपर धरना