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चेष्टाका प्रयोग करनेमें जो कष्ट और जो कठिनाई भोगनी पडती है उसीसे ही हमे वास्तविक सुख होता है और उसीसे, हम जो कुछ प्राप्त करते हैं, वह कीमती हो जाता है । पुस्तकपाठी बावूपनेमें भी, वह आनन्द और वह सार्थकता नहीं रहती जो ज्ञानको स्वय अपनी चेष्टासे प्राप्त करनेमें या कठिन परिश्रमसे सत्यकी खोज करने में है। . पुस्तकोंपर ही सारा दारोमदार रखनेसे धीरे धीरे मनकी स्वाधीन शक्ति नष्ट हो जाती है और उस शक्तिके सचालन करनेमें जो सुख है वह भी नहीं रहता, बल्कि यदि कभी उसको सचालन करनेकी आवश्यकता होती है तो उलटा कष्ट होता है।
इस तरह जब हमारा मन बचपनसे ही पुस्तक पढ़नेके आवरणसे ढक जाता है तब हम मनुष्योंके साथ सहज भावसे मिलने जुड़नेकी शक्तिको खो बैठते हैं। जो दशा हमारे कपडोंसे ढंक हुए शरीरकी हुई है-वह उघडा होनेमें सकोच करने लगा है वही दशा हमारे पुस्तकावृत मनकी भी हो गई है-वह भी बाहर नहीं आना चाहता। इस बातको हम प्रतिदिन ही देखते हैं कि सर्व साधारणका सहज भावसे आदर सत्कार करना, उनके साथ आत्मभावसे मिल जुलकर बातचीत करना आजकलके शिक्षितोंके लिए दिनपर दिन कठिन होता जाता है । वे पुस्तकके लोगोंको पहचानते हैं परन्तु पृथिवीके लोगोको नहीं पहचानते उनके लिए पुस्तकके लोग तो मनोहर है परन्तु पृथिवीके लोग श्रान्तिकर है। वे बड़ी बड़ी सभामोंमें व्याख्यान दे सकते हैं परन्तु सर्वसाधारणके साथ बातचीत नहीं कर सकते। बड़ी बड़ी पुस्तकोंकी आलोचना तो कर सकते है परन्तु उनके मुंहसे - सहज बोलचाल-साधारण बातचीत भी अन्छी तरह बाहर नहीं निकलना चाहती । इन सब बातोसे कहना पडता है कि दुर्भाग्यवश ये