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१८५ यह आक्षेप व्यर्थ है कि "समयसारमें बहुतसी नई बातें धुसेड़ दी गई
इस तरह जितने आक्षेप बनारसीदासजी पर किये गये हैं, उन सबका निराकरण हो जाता है । अव प्रश्न यह है कि उपाध्याय मेघविजयजीने अपने अन्यमें उनपर आक्षेप क्यों किये? क्या वे सर्वथा निर्मूल हैं ?
नहीं, बनारसीदासजीकी एक समय ऐसी अवस्था अवश्य ही हो गई थी-वे व्यवहारको सर्वथा ही छोडकर केवल अध्यात्मको पकड़ बैठे थे । इसका उल्लेख उन्होंने अपने अर्धकथानक नामक जीवनचरितमें स्वयं ही किया है । वि० सं० १६८० के लगभग जब उन्होने अर्थमल्लजी नामक अध्यात्मप्रेमी सज्जनके कहनेसे नाटकसमयसारका अध्ययन किया तब वे बाह्य क्रियाओंसे बिलकुल ही हाथ धो बैठे। उनके चन्द्रभान, थानमल और उदयकरन नामक मित्रोंकी भी यही दशा हुई । और तो क्या भगवानको चढ़ाया हुआ खानेमें भी इन्होंने कोई दोप न समझा। आपको ये मुनिराज भी बना लेते
"नगन होहिं चारों जने, फिरहि कोठरी माहिं ।
कहहिं भये मुनिराज हम, कछू परिग्रह नाहिं।" उनकी इस अवस्थाको देखकरः--
"कहहिं लोग श्रावक अरु जती, वानारसी खोसरामती!" अपनी इस अवस्थाका उन्होंने इन शब्दोंमें परिहास किया है:
"करनीको रस मिट गयो, भयो न आतमस्वाद ।
भई वनारसीकी दसा, जथा ऊँटको पाद ॥" उनकी यह दशा वि० सं० १६८० से १६९२ तक रही। मालूम होता है कि उपाध्यायजीने इसी समय अपने ग्रन्थकी रचना की होगी