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ग्विजयसिंहजीका व्यारख्यान हो रहा था । उन्होंने कहा कि जैनियोंकी जनसख्या घट रही है। और यह नियम है कि जब किसी चीजका सर्च तो जारी रहता है पर आमदनीकी कोई सूरत नहीं होती तव उसका एक न एक दिन शेप हो ही जाता है। इस लिए हमें चाहिए कि अजैनोंको जैन वनाकर अपनी सख्याको क्षीण होनेसे रोकें । वस, इतना सुनते ही वहुतसे लोग भडक उठे ओर हुल्लड मचानेके लिए खडे हो गये। यह देखकर सेठ हुकुमचन्दजी सडे होगये और उन्होंने बहुत कुछ समझा बुझाकर बडी मुश्किलसे उन्हें शात किया। सेठजीने कहा कि “ इसमें भडकनेकी कोई वात नहीं है। प्रत्येक जातिका मनुष्य जैनधर्म धारण कर सकता है। यह आपका सामाजिक या जातीय प्रश्न नहीं है-ये यह नहीं कहते कि जो लोग जैनधर्म धारण करलें उनके साथ तुम रोटी वेटी व्यवहार भी जारी कर दो । फिर इतनी उछल कूद मचानेकी क्या आवश्यकता है। इत्यादि ।" इन दो घटनाओंसे हमारे शिक्षित भाईयोंको जानना चाहिए कि हमारे समाजमें विचारसहिष्णुताकी कितनी कमी है और जब तक लोगोंमें इतना भी धैर्य नहीं है-वे दूसरोंकी वाताको सुन भी नहीं सकते है तबतक समाजमें किसीभी सुधारको आश्रय मिलनेकी आशा कैसे की जा सकती है। इस विपयमें मालवा आदि प्रान्त तो बहुत ही वढे चढे हैं-उनकी रुढियों या सस्कारोंके विरुद्ध एक शब्द भी यदि कोई कह दे तो उनके मिजाजकी गर्मीका पारा १०५ डिग्रीपर जा पहुँचे। इसका कारण उनकी घोर अज्ञानता है। जव उनके कानोंतक कभी ऐसे शब्द गये ही नहीं, अपनी सकीर्ण परिधिके वाहर भी कुछ है यह जव उन्हें मालम ही नहीं, तव ऐसा होना स्वाभाविक ही है। इस लिए सबसे पहले हमारा यह कर्तव्य होना चाहिए कि सर्व साधारणमें विचारसहिष्णुता उत्पन्न करें। इसके लिए कुछ नये विचारोंके परन्तु शान्त दूरदर्शी और सदाचारी उपदेशक नियत किये जावें आरै वे जगह जगह घूमकर विचारसहिष्णुताके सिद्धान्त समझावें, नये विचारोंको उत्तमताके साथ लोगोंके कानोंतक पहुँचावें, देश और समाजकी वर्तमान परिस्थितियोंका ज्ञान करावें । सुधारसम्बन्धी कुछ ट्रेक्ट छपाकर जगह जगह वितरण किये जावें और समाचारपत्रोंमें सुधारसम्बन्धी लेरा खूब स्वाधीनताके साथ लिये जावें। यदि वर्तमान समाचारपत्रोंसे काम न चले-वे यदि अपनी दबू दुरगी और गिरी हुई पालिसीको छोडना पसन्द न करें तो एक दो विलकुल स्वाधीन और शानदार पत्र निकालनेका प्रयत्न किया जाय।