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जैनहितैषी।
श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात्सर्वज्ञनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥
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१० वाँ भाग] मार्गशीर्ष, श्री० वी० नि० सं० २४४० । २ रा अंक
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प्राचीन भारतमें जैनोन्नतिका उच्च आदर्श। ( टी. पी. कुप्पूस्वामी शास्त्री, एम. ए, असिस्टेंट, गवर्नमेंट म्यूजियम, तजौरके
एक अगरेजी लेखका अनुवाद ।) — यह निधडक कहा जा सकता है कि वेदानुयायियोंके समान
जैनियोंकी प्राचीन भाषा (प्राकृतसहित) सस्कृत थी। जैनी अवैदिक भारतीय-आर्योंका एक विभाग है। जैन, क्षपण, श्रमण, अर्हत् इत्यादि शब्द जो इस विभागके सूचक है, सब सस्कृतमूलक है। दिगम्बर और श्वेताम्बर यह दो शब्द भी, जो इस विभागकी संप्रदायोंके बोधक हैं, स्पष्टतया सस्कृतके हैं। जैन-दर्शनमें नौ पदार्थ माने गए है-जीव, अजीव, आस्रव ( कर्मोका आना), बंध (कर्मोका । आत्माके साथ बँधना), संवर (कर्मोके आगमनका रुकना), निर्जरा . (वैध कोका नाश होना), मोक्ष (आत्माका कमोंसे सर्वथा रहित होना ), पुण्य (शुभ कर्म) और पाप (अशुभ कर्म)। इन पदार्थो मेंसे पहिले सात जैन-दर्शनमें तत्त्व कहे जाते हैं । हम यह भी देखते