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(५) शिक्षा यह भी ग्रहण करो पतझाड़ देखकर। रह सकती है चीज़ कामहीकी निजपद पर । हुआ निकम्मा, वही गिरा, ज्यो पत्र पुराने । कर्मी इससे बनो, 'प्रकृति'को निजगुरु जाने । स्वयं निकम्मे मत बनो, औरोको उपदेश हो। कर्मनिष्ठ उत्कर्षयुत, फिर भी अपना देश हो।
देखो गति, कर्तव्यनिष्ठ निरपेक्ष पवनकी । है न इसे कुछ चाह सुगन्धित इस उपवनकी । तो भी गुणमे फॅसी सुगन्ध न इसको छोडे । हो इसकी सहचरी आप ही नाता जोड़े। यश-लक्ष्मीकी लालसा छोड़, करो कर्तव्यको। भजती है वह आपही योग्यपुरुपको-भव्यको।
देखो, यह सहकार, मधुरतामयी सरसता
और श्रेष्ठताके घमंडसे भरा, दरसता ॥ फूल रहा है, और सफलताकी आशा परचौराया है, यथा गुणी उद्धत कोई नर ।। तुम पाकर कुछ योग्यता, या धनाढ्य होकर कभी, वनो न ऐसे वावले; मिट्टी होंगे गुण सभी॥
. (१०) स्पष्टवादिता और मित्रका धर्म निभाता। यह कोकिल है धन्य, इसीसे आदर पाता।
वह रसालके पास बैठकर चिल्लाता है। 'कु-ऊ, कु-* कह रहा, मित्रंको समझाता है। स्वार्थी भ्रमरोंके वृथा साधुवादमें पड़ अहह !
उसकी कुछ सुनता नहीं श्रीमदान्ध जड़ आम यह ॥ * अर्थात् यह बुरा है .