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१४५ और १२ व्रतरूप श्रावकधर्मका वर्णन किया है। और इस कथनके अन्तकी २७ वी गाथा, ' एवं सावयधम्म संजमचरणं उदेसियं सयलं' इस वाक्यके द्वारा इसी (११ प्रतिमा १२ व्रतरूप संयमाचरण)को श्रावकधर्म बतलाया है। परन्तु वे ही कुंदकुद अपने श्रावकाचारमें जो खास श्रावकधर्मके ही वर्णनके लिए लिखा जाय उन ११ प्रतिमादिकका नाम तक भी न देवें, यह कभी हो नहीं सकता। इससे साफ़ प्रगट है कि यह प्रन्थ श्रावकाचार नहीं है, बल्कि विवेकविलासके उक्त ९- पद्यमें 'विवेकविलासाख्यः' इस पदके स्थानमें 'श्रावकाचारविन्यास' यह पद रखकर किसीने इस ग्रंथका नाम वैसे ही श्रावकाचार रख छोड़ा है। अब पाठकोंको यह जाननेकी ज़रूर उत्कंठा । होगी कि जब इस ग्रंथमें श्रावकधर्मका वर्णन नहीं है तब क्या वर्णन है ? अतः इस ग्रंथमें जो कुछ वर्णित है, उसका दिग्दर्शन नीचे कराया जाता है:
“सेवेरे उठनेकी प्रेरणा; स्वप्नविचार; स्वरविचार सबेरे पुरुषोंको अपना दाहिना और स्त्रियोंको बायाँ हाथ देखना; मलमूत्र त्याग और गुदादि प्रक्षालनविधि; दन्तधावनविधि, सबेरे नाकसे पानी पीना; तेलके कुरले करना; केशोंका सँवारना; दर्पण देखना; मातापितादिककी भक्ति और उनका पालन; देहली आदिका पूजन; दक्षिण वाम स्वरसे प्रश्नोंका उत्तरविधान; सामान्य उपदेश; चंद्रबलादिकके विचार कर. नेकी प्रेरणा; देवमार्तिके आकारादिका विचार; मंदिरनिर्माणविधि; भूमिपरीक्षा; काष्ठपाषाणपरीक्षा; स्नानविचार; क्षौरकर्म (हजामत) विचार; वित्तादिकके अनुकूल शृंगार करनेकी प्रेरणा; नवीनवस्त्रधारणविचार; ताम्बूल भक्षणकी प्रेरणा और विधि; खेती, पशुपालन और अन्नसग्रहादिकके द्वारा धनोपार्जनका विशेष वर्णन; वणिक्व्यवहारविधि;