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कृष्णको नहीं छोड़ती। भावार्थ, पान चबानेवाला मनुष्य कृष्णजीके समान लक्ष्मीवान होता है।
यह कथन भी जैनमतके किसी सिद्धान्तसे सम्बंध नहीं रखता और न किसी दिगम्बर आचार्यका ऐसा उपदेश हो सकता है। आजकल बहुतसे मनुष्य रात दिन पान चबाते रहते हैं परन्तु किसीको भी श्रीकृष्णके समान लक्ष्मीवान् होते नहीं देखा ।।
(६) ग्यारहवें उल्लासमें ग्रंथकार लिखते हैं कि जिस प्रकार बहुतसे वर्णोकी गौओंमें दुग्ध एक ही वर्णका होता है उसी प्रकार सर्व धर्मों में तत्त्व एक ही है । यथा--
" एकवर्ण यथा दुग्धं बहुवर्णासु धेनुषु । तथा धर्मस्य वैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं पुन. ॥ ७३ ॥ यह कथन भी जैनसिद्धान्तके विरुद्ध है । भगवत्कुदकुंदके ग्रंथोंसे इसका कोई मेल नहीं मिलता । इसलिए यह कदापि उनका नहीं हो सकता।
(७) पहले उल्लासमें एक स्थानपर लिखा है कि जिस मंदिर पर ध्वजा नहीं है उस मंदिरमें किये हुए पूजन, होम और जपादिक सव ही विलुप्त हो जाते है; अर्थात् उनका कुछ भी फल नहीं होता। यथा:--
"प्रासादे ध्वजनिमुक्त पूजाहोमजपादिकम् । सर्व विलुप्यते यस्मात्तस्मात्कार्यों ध्वजाच्छयः ॥ १७१ ॥ यह कथन बिलकुल युक्ति और आगमके विरुद्ध है। इसको मानते हुए जैनियोंको अपनी कर्मफिलासोफीको उठाकर रख देना होगा। उमास्वामिश्रावकाचारमें भी यह पद्य आया है। इस प्रथपर जो लेख नं. १ इससे पहले दिया गया है उसमें इस पद्यपर विशेष लिखा जा चुका है। इस लिए अब पुनः अधिक लिखनेकी जरूरत नहीं है।