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भावकोंके निकट न रहकर बालक यदि दूर रक्खे जावें तो क्या कोई बड़ी भारी दुश्चिताका कारण हो जायगा।
हमने जो ऊपर एक दृष्टान्त दिया है उसका एक विशेष कारण है। साहबीपनका जिन्हें अभ्यास नहीं है, यह दृष्टात उनके चित्तोपर बड़े जोरसे चोट पहुंचावेगा। वे सचमुच ही मन-ही-मन सोचेंगे कि लोग यह इतनी सी मामूली बात क्यों नहीं समझते-चे सारा भविप्यत् भूलकर केवल अपने कितने ही विकृत अभ्यासोंकी अधताके वश बच्चोंका इस प्रकार सर्वनाश करनेके लिए क्यों तत्पर हो जाते हैं।
किन्तु यह याद रखना चाहिए कि जिन्हें साहबीपनका अभ्यास हो रहा है, वे यह सब काम बहुत ही सहज भावसे किया करते हैं। यह बात कभी उनके मनमें ही नहीं आ सकती कि हम सन्तानको किसी दूषित अभ्यासमें डाल रहे हैं। क्योंकि हमारे निजके भीतर जो सब खास खास विकृतियाँ होती है उनके सम्बन्धमे हम एक तरहसे अचेतन ही रहते हैं-उन्होंने हमें अपनी मुट्ठीमें इस तरह कर रक्खा है कि उनसे और किसीका अनिष्ट तथा असुविधा होनेपर भी हम उनकी ओरसे उदासीन रहते हैं-यह नहीं सोचते कि इनसे दूसरोको हानि पहुँच रही है। हम समझते है कि परिवारके भीतर क्रोध, द्वेष, अन्याय, पक्षपात, विवाद, विरोध, ग्लानि, बुरे अभ्यास, कुसंस्कार आदि अनेक बुरी बातोंका प्रादुर्भाव होनेपर भी उस परिवारसे दूर रहना ही वालकोंके लिये सबसे बड़ी विपत्ति है। यह बात कभी हमारे मनमें उठती ही नहीं कि हम जिसके भीतर रहकर मनुष्य हुए हैं उस (परिवार ) के भीतर और किसीके मनुष्य बनने में कुछ क्षति है या नहीं। किन्तु यदि मनुष्य बनानेका आदर्श सच हो, यदि बालकोंको अपने ही जैसा काम चलाऊ आदमी बनानेको हम यथेष्ट