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उसके सिर पै खुला खड्ग सदा
बॅधा धागेमे धारसे झूलता है। वह जाने विना विधिकी गतिको
अपनी ही गढन्तमें फूलता है। पर अन्तको ऐसे अचानक, अन्तकअन अवश्य ही हूलता है।
(१६) पर जो जन भोगके साथ ही योगके
काम अकाम किया करता। परिवारसे प्यार भी पूरा करे
पर-पीर परन्तु सदा हरता ॥ निज भावको भाषाको भूले नहीं,
कहीं विघ्न-व्यथाको नहीं डरता। कृतकृत्य हुआ हंसते हसते
वह सोच सकोच बिना मरता॥
प्रिय पाठक, आप तो विज्ञ ही है,
फिर आपको क्या उपदेश करें। शिरपै शर ताने बहेलिया काल
खड़ा हुआ है, यह ध्यान धरें॥ दशा अन्तको होनी कपोतकी ऐसी
परन्तु न आप जरा भी डरें। निज धर्मके कर्म सदैव करें, कुछ चिन्ह यहांपर छोड मरें।
रूपनारायण पाण्डेय ।