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६. हमारी संस्थायें और उनपर लोगोंकी सम्मतियाँ। ज्यों ही कोई पढ़ा लिखा या प्रसिद्ध पुरुष किसी संस्थामें पहुँचा और एकाध दिन रहा, कि उसके आगे संस्थाकी व्हिजीटर्स बुक रख दी जाती है। उससे कहा जाता है कि इस संस्थाके विषयमें आप अपनी राय लिखिए । एक तो जैन समाचारपत्रोकी कृपासे उस निरीक्षकका पहलेहीसे कुछका कुछ विश्वास बना हुआ होता है । क्योकि समाचारपत्रोंके सम्पादक एक तो संस्थाकी भीतरी हालतसे स्वयं ही अपरिचित होते हैं, दूसरे संस्थाके संचालक लोग उसकी प्रसिद्धिके लिए प्रायः दवाव ही डाला करते है और तीसरे सम्पादक महाशय भी संस्थाको कुछ प्राप्ति हो जाया करे इस खयालको अधिक पसन्द करते है। फल यह होता है कि निरीक्षक महाशय अपने पूर्व विश्वासके अनुसार संस्थाकी प्रशंसा कर देना ही अपना कर्तव्य समझते हैं। वास्तवमें जब तक दश वीस दिन रहकर किसी सस्थाका बारीकीसे अवलोकन न किया जाय तब तक कोई भी उसका भीतरी रहस्य नहीं जान सकता है। परन्तु यहाँ तो एक ही दिनमें निरीक्षक महाशय अपनी कलमसे उसे सर्वोपरि बना देते हैं। इसके बाद संस्थाके संचालक उस रिमार्कको समाचारपत्रोंमें तथा वार्षिक रिपोर्टमें प्रकाशित कर देते हैं। लोग समझते हैं कि सचमुच ही यह संस्था अच्छा काम कर रही हैइसमें कोई दोष नहीं है। परन्तु इस पद्धतिसे समाजको और सस्थाको बहुत ही हानि पहुँचती है । समाजमें उसके विषयमें कुछका कुछ खयाल हो जाता है और संस्थाके संचालक इन प्रशंसासूचक सम्मतियोंसे गुमराह हो जाते हैं । इस विषयमें लोगोंको सचेत हो जाना चाहिए।
७. संस्थाओं में अंधाधुंध खर्च। हमारे एक पाठक लिखते है कि जैनियोंकी संस्थाओमें विशेष