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आसनपर बैठे हैं; और हमें अपने जीवनके द्वारा छात्रोंमें जीवनसञ्चार करना है, अपने ज्ञानके द्वारा छात्रोंमे ज्ञानकी बत्ती जलानी है, अपने स्नेहके द्वारा बालकोका कल्याणसाधन करना है, तब ही वे गौरवान्वित हो सकेंगे-तब वे ऐसी चीजका दान करनेको तैयार होंगे जो पण्यद्रव्य नहीं है, जो मूल्य देकर नहीं पाई जा सकती और तव ही वे छात्रोंके निकट शासनके द्वारा नहीं किन्तु धर्मके विधान तथा स्वभावके नियमसे भक्ति करने योग्य-पूज्य बन सकेंगे। वे जीविकाके अनुरोधसे वेतन लेनेपर भी बदलेमें उसकी अपेक्षा बहुत अधिक देकर अपने कर्तव्यको महिमान्वित कर सकेंगे। यह बात किसीसे छुपी नहीं है कि अभी थोडे दिन पहले जब देशके विद्यालयोमें राजचक्रकी शनिदृष्टि पड़ी थी, तत्र बीसों प्रवीन और नवीन शिक्षकोंने जीविका लुब्ध शिक्षकवृत्तिकी कलङ्ककालिमा कितने निर्टज भावसे समस्त देशके सामने प्रकाशित की थी । यदि चे भारतके प्राचीन गुरुओंके आसनपर बैठे होते तो पदवृद्धिके मोहसे और हृदयके अभ्यासके वशसे छोटे २ बच्चोंपर निगरानी रखनेके लिए कनस्टेबल बिठाकर अपने व्यवसायको इस तरह घृणित नहीं कर सकते । अब प्रश्न यह है कि शिक्षारूपी दूकानदारीकी नीचतासे क्या हम देशके शिक्षकोंको और छात्रोंको नहीं बचा सकते ?
किन्तु हमारा इन सब विस्तृत आलोचनाओंमें प्रवृत्त होना जान पड़ता है कि व्यर्थ जा रहा है--मालूम होता है बहुतोंको हमारी इस शिक्षाप्रणालीकी.मूल बातमे ही आपत्ति है । अर्थात् वे लिखना पढ़ना सिखलानेके लिए अपने बालकोंको दूर भेजना हितकारी नहीं समझते।
इस विषयमें हमारा प्रथम वक्तव्य यह है कि हम आजकल जिसको लिखना पढ़ना समझते हैं उसके लिए तो केवल इतना ही काफी है कि अपने मुहलेकी किसी गलीमें कोई एक सुमीतेका स्कूल देख लिया