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बहुत ही कम संश काममें लगता है-वे पलके समान काम किया करते हैं । फोनोग्ाफ यन्त्रके नाय यदि हम एक बेत और योजता मस्तक जोड़ दें तो बस वह स्कूलका शिक्षक बन सकता है। किन्तु यदि इसी शिक्षकको हम गुत्के आसनपर विठादें तो स्वभावते ही उसके हृदय मनकी शक्ति सनम भारते मियोंकी सोर । दौड़ेगी। यह सच है कि उसकी जितनी शक्ति है उसते मविक वह शिप्योंको न दे सकेगा किन्तु उसती सपेक्षा कम देना भी उसके लिए जाकर होगा। जबतक एक पक्ष यथार्थ भावते दावा न करेगा तबतक दूसरे पक्षमें सम्पूर्ण शक्तिका होवन न होगा। आज स्कूलले शिक्षकोंने रूपर्ने देशकी जो शक्ति काम कर रही है. देश यदि सच्चे हृदयसे प्रार्थना करे तो गुरुलपमें उसकी अपेक्षा बहुत अधिक शक्ति ज्ञान नरेगी।
आजकल प्रयोजनके नियमते शिक्षक छात्रों के पास आते हैंशिक्षक गरजी बन गये हैं; परन्तु स्वाभाविक नियमते शिप्योंको गुत्के पास जाना चाहिए-छात्रोंशी गरज होनी चाहिए। अब शिक्षक एक तरहके दूनानदार हैं और विद्या पढ़ाना उनका व्यवतार है। के ग्राहकों या खरीददारोती खोजमें फिरा करते हैं। दूकानदारफे यहाँसे लोग चीज खरीद सकते हैं, परन्तु उसकी विक्रेप चीजोंमें स्नेह, श्रद्धा, निष्ठा आदि हृदयसी चीजें भी होंगी, इस प्रकारको नाशा नहीं की जा सकती। इसी कारण शिक्षक वेतन (तनख्वाह) लेते हैं और विगको वेव देते है और यही दूकानदार और ग्राहकके सन्न शिक्षण और बात्रोंना सन्वन्ध समाप्त हो जाता है। इस प्रचारकी प्रतिकूल पवत्यामें भी बहुतते शिक्षक लेन देनका सम्बन्ध छोड़ देते हैं। हमारे शिक्षक व यह समझने लगेगे कि हम गुलके