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और उसके साथ बहुत हुआ तो एक प्राइवेट ट्यूटर भी रख लिया। जो शिक्षा इस उद्देश्यको सामने रखकर दी जाती है कि-"लिखना पढ़ना सीखे जोई, गाड़ी घोड़ा पावे सोई ।" वह शिक्षा ही नहीं, इस प्रकारकी शिक्षा मानवसन्तानको अतिशय दीन और कृपण बनानेवाली अतएव सर्वथा अयोग्य है।
दूसरा वक्तव्य यह है कि, 'शिक्षाके लिए वालकोंको घरसे दूर भेजना उचित नहीं है। इस बातको हम तब मान सकते थे जब हमारे घर वैसे होते जैसे कि होने चाहिए थे। कुम्हार, लुहार, बढई, जुलाहे आदि शिल्पकार अपने बच्चोंको अपने पास रखकर ही मनुष्य बना लेते हैं
और वे उन्हीं जैसा काम करने लगते है। इसका कारण यह है कि वे जितनी शिक्षा देना चाहते हैं वह घर रखके ही अच्छी तरहसे दी जा सकती है-उनका घर उसके योग्य होता है । पर शिक्षाका आदर्श यदि इससे कुछ और उन्नत हो तो बालकोंको स्कूल भेजना होगा।तब यह कोई न कहेगा कि मा बापके पास शिखाना ही सर्वापेक्षा अच्छा है, क्योंकि अनेक कारणोंसे ऐसा होना संभव नहीं। शिक्षाके आदर्शको यदि और भी ऊचा उठाना चाहें, यदि परीक्षा फल-लोलुप पुस्तक शिक्षाकी ओर ही हम न देखें, यदि सर्वाङ्गीण मनुष्यत्वकी दीवाल खडी करनेको ही हम शिक्षाका लक्ष्य निश्चय करें, तो उसकी व्यवस्था न तो घर हीमें हो सकेगी-और न स्कूलोंमें ही हो सकेगी। __ ससारमें कोई वणिक है, कोई वकील है, कोई धनी जमींदार है और कोई कुछ और है। इन सवहीके घरकी आव हवा स्वतन्त्र या जुदा जुदा तरहकी है और इसलिए इनके घरकी बच्चोपर छुटपन हीसे जुदा जुदा तरहकी छाप लग जाती है।
जीवनयात्राकी विचित्रताके कारण मनुष्यमें अपने आप जो एक विशेपत्व घटित होता है वह अनिवार्य है और इस प्रकार एक एक