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अभ्यास पड़ जानेपर हमारी ऐसी दशा हो जाती है कि यदि कभी भूमितलपर बैठनेके लिए हमें लाचार होना पड़ता है तो न तो हमें आराम मिलता है और न सुबिधा ही मालूम पड़ती है | विचार करके देखा जाय तो यह एक बड़ी भारी हानि है । हमारा देश शीतप्रधान देश नहीं है, हमारा पहनाव ओढाव ऐसा नहीं है कि हम नीचे न बैठ सकें, तब परदेशोंके समान अभ्यास डालके हम असबाबकी बहुलतासे अपना कष्ट क्यों बढावें ? हम जितना ही अनावश्यकको अत्यावश्यक बनावेगे उतना ही हमारी शक्तिका अपव्यय होगा। इसके सिवा “धनी यूरोपके समान हमारी पूँजी नहीं है, उसके लिए जो बिलकुल
सहज है हमारे लिए वहीं भार रूप है। हम ज्यों ही किसी अच्छे कार्यका प्रारंभ करते है और उसके लिए आवश्यक इमारत, असबाब, फरनीचर आदिका हिसाब लगाते है त्यों ही हमारी ऑखोंके आगे अंधेरा छा जाता है। क्योकि इस हिसाबमें अनावश्यकताका उपद्रव रुपयेमे बारह आने होता है। हममेंसे कोई साहस करके नहीं कह सकता कि हम मिट्टीके साधे घरमें काम आरंभ करेंगे और धरतीमें आसन बिछाकर सभा करेंगे। यदि हम यह बात जोरसे कह सकें और कर सकें तो हमारा आधेसे अधिक वजन उतर जाय और काममें कुछ अधिक तारतम्य भीन हो । परन्तु जिस देशमें शक्तिकी सीमा नहीं है, जिस देशमें धन कौने कौनेमें भरकर उछला पड़ता है, उस धनी यूरोपका आदर्श अपने सब कामोंमे बनाये विना हमारी लज्जा दूर नहीं होती -हमारी कल्पना तृप्त नहीं होती। इससे हमारी क्षुद्र शक्तिका बहुत बड़ा भाग आयोजनोंमें-तैयारियोंमें ही निःशेष हो जाता है, असली चीजको हम खुराक ही नहीं जुटा पाते । हम जितने दिन पट्टियोंपर खडिया पोतकर हाथ घसीटते रहे, तब तक तो पाठशालायें स्थापन