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अन्यके साथ उमास्वामिके नामका सम्बन्ध है; ग्रन्थके अन्तिम श्लोकसे पूर्वके काव्यमें *'स्वामी' शब्द आया है अथवा खुद ग्रन्थकार उपर्युक्त श्लोक नं. ४६५ द्वारा यह प्रगट करते हैं कि इस ग्रन्थमें सातवें सूत्रसे अवशिष्ट समाचार वर्णन किया गया है। इसी लिये ७० अतीचार जो सातवें सूत्रमें वर्णन किये गये हैं वे यहां पृथक नहीं कह गये; इन सब बातोंसे यह अन्य सूत्रकार भगवदुमास्वामिका बनाया हुआ सिद्ध नहीं हो सकता । एक नामके अनेक व्यक्ति भी होते हैं; जैन साधुओंमें भी एक नामके धारक अनेक आचार्य और भट्टारक हो गये है। किसी व्यक्तिका दूसरेके नामसे अन्य बनाना भी असंभव नहीं है। इस लिए जब तक किसी माननीय प्राचीन आचार्यके द्वारा यह अन्य भगवान् उमास्वामिका बनाया हुआ स्वीकृत न किया गया हो या खुद अन्य ही अपने साहित्यादिसे उसका साक्षी न हो तब तक नामादिकके सम्बन्ध मात्रसे इस ग्रंथको भगवदुमास्वामिका बनाया हुआ नहीं कह सकते। किसी माननीय आचार्यकी वृतिमें इस ग्रंथका कहीं नामोल्लेख तक न मिलनेसे अब हमें यही देखना चाहिए कि यह ग्रंथ, धास्तवमें, सूत्रकार भगवदुमास्वामिका बनाया हुआ है या कि नहीं । यदि परीक्षासे यह प्रय, वास्तवमें, सूत्रकार श्रीउमास्वामिका बनाया हुआ सिद्ध हो तव ऐसा प्रयत्न होना चाहिए जिससे यह ग्रंथ अच्छी तरहसे उपयोगमें लाया जाय और तत्त्वार्थसूत्रकी तरह इसका भी सर्वत्र प्रचार हो । अन्यथा विद्वानोंको सर्व साधारणपर यह प्रगटकर देना चाहिए कि, यह प्रथ
* अन्तिम श्लोकसे पूर्वका वह काव्य इस प्रकार है
“इति हतदुरितीघं श्रावकाचारसार गदितमतिसुबोधावसथक स्वामिभिश्च विनयभरनतागा सम्यगाकर्णयन्तु विशदमतिमवाप्य ज्ञानयुचा भवंतु ॥ ४७३ ॥
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