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वैसे गणिका-प्रणय-साधनाका सुख होता।
बढ़ती जीकी जलन शान्तिका सूखे सोता ॥ गंगाजल है आपकी शीतल विमल पतिव्रता । उसे छोड क्या उचित है करना ऐसी मूर्खता"
(२५) सुन वेश्याके वचन विप्र जैसे जागेसे। मोह होगया दूर, हटा पर्दा आगेसे ।। " सच तो है, यह कहाँ रूप-मृगतृष्णा ऐसी ?
और कहाँ वह शान्ति-रूपिणी गंगा जैसी? मुझसे तो वेश्या भली, इतना जिसे विचार है। मेरी मतिको, ज्ञानको, शिक्षाको धिक्कार है।"
(२६) लक्खीने ऐसे उपायसे काम निकाला। विप्र बचे, वह बची, प्रतिज्ञाको भी पाला ।।
* * * ब्राह्मणने फिर अनुष्ठान गंगापर ठाना । गायत्रीसे मिटा कोढ, पाया मनमाना ॥
* * * पतिव्रता भी अन्त तक पतिपदपूजारत रही। पाठकगण, तुम भी कहो-'धन्य धन्य भारतमही!"
रूपनारायण पाण्डेय ।