________________
श्लोक न, १०५ के इस उत्तरार्धसे मालूम होता है कि उमास्वामिश्रावकाचारके रचयिताने कुन्दकुन्दधारकाचारके समान फाट लेप ओर लोहेकी प्रतिमाओंका श्लोक न. १०१ में विधान करके फिर उनका निपेध इन शब्दोंमें किया है कि आजकल ये काष्ठ, लेप
और लोहेकी प्रतिमायें पूजनके योग्य नहीं है। इसका कारण अगले श्लोकमें यह बतलाया है कि ये वस्तुयें यथोक्त नहीं मिलती और जीवोत्पत्ति आदि बहुतसे दोषोंकी सभावना रहती है। यथा:--
"योग्यास्तेषां यथोक्तानां लाभस्यापित्वभावतः।
जीवोत्पत्त्यादयो दोपा बहवः संभवंति च ॥ १०६॥" प्रथकर्ताका यह हेतु भी विद्वज्जनाके ध्यान देने योग्य है।
ड-उपासकाचारसे*। "एतेषु निश्चयो यस्य विद्यते स पुमानिद । सम्यग्दृष्टिरिति शेयो मिथ्याटतेपु संशयी ॥२०॥ मांसरतार्द्रचर्मास्थिसुरादर्शनतस्त्यजेत् । 'मृतादिगवीक्षणादनं प्रत्याख्यानान्नसेवनात् ॥ ३१५॥"
ये दोनों श्लोक पूज्यपादकृत उपासकाचारमें नं. ८ और ३८ पर दर्ज हैं। वहींसे उठाकर रखे हुए मालम होते हैं।
च--धर्मसंग्रहश्रावकाचारसे । "माल्यधूपप्रदीपाद्यैः सचित्त कोऽर्चयेजिनम् । सावधसभवाद्वक्ति यः स एवं प्रयोध्यते ॥ १३७॥ जिनार्चानेकजन्मोत्थं किल्विषं हन्ति या कृता। सा किन यजनाचारैर्भचं सावद्यमांगनाम् ॥ १३८॥ प्रेर्यन्ते यत्र वातेन दन्तिनः पर्वतोपमा।
तत्राल्पशक्तितेजस्सु दंशकादिषु का कथा ॥ १३९॥
* यह उपासकाचार प्रथ, सर्वार्थसिद्धि आदि प्रथोंचे प्रणेता श्रीमत्पूज्यपाद. स्वामीका बनाया हुआ नहीं है। इसकी परीक्षा भी फिर किसी स्वतत्र लेख द्वारा की जायगी।
-लेखक।
--