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आते-जाते और बुलाते थे आदरसे।
बरसाते थे रत्न और धन लाकर घरसे ॥ एक लाख रुपया अगर कोई देता था कभी । एक रात उसके निकट रहती थी लक्खी तभी।
किन्तु उधर जो दीन दुखी दुख रोता आकर । जाता वह होकर निहाल मनमाना पाकर ॥ विश्वनाथको अगर कभी घरसे जाती थी।
या गंगापर पर्व दिवसमें वह आती थी। तो लक्खी पर दृष्टियों पड़ती थीं इस ढंगसे । ज्यों भौंरोकी पंक्तियाँ मिले कमलके अंगसे ॥
कोढ़ी लूले एक विप्र थे उसी पुरीमें। होता था रोमाञ्च देखकर दशा बुरीमें। पीव अंगसे वस्त्र फोड़ बाहर छनता था ।
'त्राहि त्राहि भगवान ! यही कहते बनता था। प्रायश्चित्त उसे समझ अपने पहले कर्मका। सहते थे चुपचाप सब कष्ट हृदयके मर्मका ॥
पापी थे, पर पुण्य न-जाने कौन किया था। जिससे पत्नी पतिव्रताने साथ दिया था। चन्द्र साथ चॉदनी और काया सँग छाया ।
वह थी पति-अनुचरी, जीवके जैसे माया॥ सेवा करती हरघडी अपने पतिकी भक्तिसे। होने देती थी नहीं कष्ट उन्हें निज शक्तिसे॥